बदलता हुआ समय
लौट आई है
वही खुशबू सांसोँ की
महक
चाय के प्यालो की
साथ मेँ लौट आई है
वही कहकहे सूने आंगन की
कुछ नहीँ बदला
न तुम ,न हम
असल मेँ बदलता तो समय है
दिन के तारीख बदल जाते हैँ
कैलेँडर के पन्नोँ पर परत दर परत . . .
समय ने ही हमदोनो को जुदा किया
बदलती दूरीयोँ ने हमेँ
और पुख्ता किया
समय के साथ – साथ और कमजोर तो नहीँ
और भी परिपक्व हो गए हैँ
हम दोनोँ . . .
आओ अब बहा देँ
उस लम्बी उदासी को
जो कुछ अबोला रह गया था
उसे बह जाने देँ
ढलते नीर मेँ
शब्द जो कहीँ खो गए थे
उसे ढूँढ़ लाती हूँ
पहाड़ की तलहटियोँ से
सूरज अब भी हँस रहा है वहीँ
हमारी नादानियोँ पर
मानो कह रहा हो
समय बदलेगा
जरुर बदलेगा . . .
— सीमा संगसार
बेहतर कविता !