कविता

बदलता हुआ समय

लौट आई है
वही खुशबू सांसोँ की
महक
चाय के प्यालो की
साथ मेँ लौट आई है
वही कहकहे सूने आंगन की
कुछ नहीँ बदला
न तुम ,न हम
असल मेँ बदलता तो समय है
दिन के तारीख बदल जाते हैँ
कैलेँडर के पन्नोँ पर परत दर परत . . .

समय ने ही हमदोनो को जुदा किया
बदलती दूरीयोँ ने हमेँ
और पुख्ता किया
समय के साथ – साथ और कमजोर तो नहीँ
और भी परिपक्व हो गए हैँ
हम दोनोँ . . .

आओ अब बहा देँ
उस लम्बी उदासी को
जो कुछ अबोला रह गया था
उसे बह जाने देँ
ढलते नीर मेँ
शब्द जो कहीँ खो गए थे
उसे ढूँढ़ लाती हूँ
पहाड़ की तलहटियोँ से
सूरज अब भी हँस रहा है वहीँ
हमारी नादानियोँ पर
मानो कह रहा हो
समय बदलेगा
जरुर बदलेगा . . .

सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

One thought on “बदलता हुआ समय

  • विजय कुमार सिंघल

    बेहतर कविता !

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