“अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो”
रह-रह कानों में
पिघले शीशे-से गिरते हैं शब्द
“अगले जनम मोहे बिटिया न कीजो”।
ज़हन में
देती हैं दस्तक
घुटी-घुटी आहें
चीखें, कराहें
बिटिया होना
दिल दहलाने लगा है
अनजाने ख़ौफ़
दिल पालने लगा है
मर्दाने चेहरे
दहशत होने लगे हैं
उजाले भी
अँधेरों-से डसने लगे हैं !
बेबस से पिता
घबराई-सी माँ
कब हो जाए हादसा
न जाने कहाँ !
कुम्हला रही हैं
खिलने से पहले
झर रही हैं
बौराने से पहले
रौंद रहे हैं
इंसानी दरिंदे
काँपती हैं
ज्यों परिंदे
अहसासात
मर गए हैं
बेटियों के सगे
डर गए हैं।
उठ जाते हैं हाथ
काँपते – से दुआ में –
“अगले जनम मोहे बिटिया न दीजो”।
बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति …
जब जब ऐसी कविता या कोई लेख पड़ता हूँ तो औरत के साथ बेइंसाफी बहुत दुःख पौह्न्चाती है . मुझे किसी और देश का तो पता नहीं यहाँ औरत के साथ इतना धक्का होता है लेकिन भारत में जो होता है उस को तो देखता ही हूँ .
बहुत मार्मिक कविता.