लघुकथा

दुखो से छुटकारा

आखिर आज मीरा ने दुखो से छुटकारा पा ही लिया| जीवन और मृत्यु के बीच की कड़ी टूट गयी | चिर शांति मिल गयी | अंतिम यात्रा में हजारो लोगो के साथ बहू बेटा भी चल रहे थे बेटा-बहु के रोज -रोज के आपस के झगड़े ने मीरा का सब खत्म कर दिया | बेटे ने पत्नी से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी | तब से अब तक बहू और बड़ा बेटा बहू और बेटियों ने मीरा को पैसो के लिए परेशान करने में कोई कसर नही छोड़ी थी |

पिता ने व्यापर में कमाये धन को मीरा के बुढापे के सहारे के लिए बैंक में रख छोड़ा पैसा ही मीरा का जी का झंझाल बना | माँ की देखभाल के लिए किसी के पास समय कभी रहा नही | वृद्ध माँ दो -दो बहू के रहते खुद का खाना हाथो से बनाकर खाती थी | बेटा, बहू के आगे मेमना जो बना रहता था |

जैसी करनी वैसी भरनी । माँ ने अपने बचे हुए धन को अपने वकील की मदद से एक वृद्ध आश्रम बनाने में लगा दिया था | जिससे उस जैसे सताए वृद्ध वहां अंतिम दिनों में चैन की जिंन्दगी जी सके | माँ के मरने के तीसरे ही दिन लालची परिवार ने जब धन पाने के लालच में माँ का सामान सम्भाला तो पता चला धन तो माँ खर्च कर चुकी है |

शान्ति पुरोहित

शान्ति पुरोहित

निज आनंद के लिए लिखती हूँ जो भी शब्द गढ़ लेती हूँ कागज पर उतार कर आपके समक्ष रख देती हूँ

4 thoughts on “दुखो से छुटकारा

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी लघुकथा बहिन जी !

  • उपासना सियाग

    बहुत अच्छा हुआ , यह तो नहीं कहूँगी , लेकिन रोज़ मरने से तो एक दिन मारना ही भला।

Comments are closed.