प्रेम
अनजानी राहों से
दरिया को चीर
नींद से करके वफ़ा के वादे
आ बैठा सिरहाने, पर्वतों को लांघ
चला ही आया
तुम्हारा प्रेम।
चुप थे अँधेरे
सहलाता रहा केश
चूम ही लिया
मुँदी पलकों को
बिखरी अलकों में
उलझ गए तुम्हारे नैन।
होठों की जुंबिश
बुलाती रही तुम्हें
और तुम
निहारते ही रहे
मेरे चेहरे के दर्पण में
अपनी ही छवि !
बेहतर कविता !
वाह वाह , बहुत खूब .