वृक्ष
सहता रहा
मौसमों की मार
रह ख़ामोश
धीमे-धीमे
एक छतनार वृक्ष।
सूखती रही नमी
झरते रहे पात
सूख गईं शाख़ाएँ
ठूँठ हो गया वृक्ष
तन्हा कर गए
जो साथ थे – ग़र्ज से
नहीं मारता पर
कोई भी परिंदा
चींटियाँ, गिलहरियाँ
न जाने कहाँ खो गईं
कोई राहजन
जानवर भी
आता नहीं पास
खड़ा है उदास
बिछोह ने
कर दिया है जड़ ।
एक मुसाफ़िर
गुज़रा करीब से
उसके नसीब से
देख जीवन शेष
जगी संवेदना
कुछ अपनापन
लगा सींचने
प्यार से, मनोयोग से
हरिया उठा है पेड़
उसके नेह से
विश्वास से ।