वेद और शूद्र – 1
जातिवाद सभ्य समाज के माथे पर एक कलंक हैं जिसके कारण मानव मानव के प्रति न केवल असंवेदनशील बन गया है अपितु शत्रु समान व्यवहार करने लग गया है। समस्त मानव जाति ईश्वर कि संतान है यह तथ्य जानने के बाद भी छुआ छूत के नाम पर, ऊँच नीच के नाम पर, आपस में भेदभाव करना अज्ञानता का बोधक है।
अनेक लेखकों का विचार है कि जातिवाद का मूल कारण वेद और मनु स्मृति है , परन्तु वैदिक काल में जातिवाद[i] और प्राचीन भारत में छुआ छूत[ii] के अस्तित्व[iii] से तो विदेशी लेखक भी स्पष्ट रूप से इंकार करते है[iv]।
वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था प्रधान थी जिसके अनुसार जैसा जिसका गुण वैसे उसके कर्म, जैसे जिसके कर्म वैसा उसका वर्ण। जातिवाद रुपी विष वृक्ष के कारण हमारे समाज को कितने अभिशाप झेलने पड़े। जातिवाद के कारण आपसी मतभेदों में वृद्धि हुई, सामाजिक एकता और संगठन का नाश हुआ जिसके कारण विदेशी हमलावरों का आसानी से निशाना बन गये, एक संकीर्ण दायरे में वर-वधु न मिलने से बेमेल विवाह आरम्भ हुए जिसका परिणाम दुर्बल एवं गुण रहित संतान के रूप में निकला, आपसी मेल न होने के कारण विद्या, गुण, संस्कार, व्यवसाय आदि में उन्नति रुक गई[v]।
शंका 1. जाति और वर्ण में क्या अंतर है?
समाधान– जाति का अर्थ है उद्भव के आधार पर किया गया वर्गीकरण। न्याय सूत्र में लिखा है समानप्रसवात्मिका जाति: -न्याय दर्शन[vi] अर्थात जिनके प्रसव अर्थात जन्म का मूल सामान हो अथवा जिनकी उत्पत्ति का प्रकार एक जैसा हो वह एक जाति कहलाते है।
आकृतिर्जातिलिङ्गाख्या-न्याय दर्शन[vii] अर्थात जिन व्यक्तियों कि आकृति (इन्द्रियादि) एक समान है, उन सबकी एक जाति है।
हर जाति विशेष के प्राणियों के शारीरिक अंगों में एक समानता पाई जाती है। सृष्टि का नियम है कि कोई भी एक जाति कभी भी दूसरी जाति में परिवर्तित नहीं हो सकती है और न ही भिन्न भिन्न जातियाँ आपस में संतान को उत्त्पन्न कर सकती है। इसलिए सभी जातियाँ ईश्वर निर्मित है नाकि मानव निर्मित है। सभी मानवों कि उत्पत्ति, शारीरिक रचना, संतान उत्पत्ति आदि एक समान होने के कारण उनकी एक ही जाति हैं और वह है मनुष्य।
वर्ण – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के लिए प्रयुक्त किया गया “वर्ण” शब्द का प्रयोग किया जाता है। वर्ण का मतलब है जिसका वरण किया जाए अर्थात जिसे चुना जाए। वर्ण को चुनने का आधार गुण, कर्म और स्वभाव होता है। वर्णाश्रम व्यवस्था पूर्ण रूप से वैदिक है एवं इसका मुख्य प्रयोजन समाज में मनुष्य को परस्पर सहयोगी बनाकर भिन्न भिन्न कामों को परस्पर बाँटना, किसी भी कार्य को उसके अनुरूप दक्ष व्यक्ति से करवाना, सभी मनुष्यों को उनकी योग्यता अनुरूप काम पर लगाना एवं उनकी आजीविका का प्रबंध करना है।
आरम्भ में सकल मनुष्य मात्र का एक ही वर्ण था[viii], लौकिक व्यवहारों कि सिद्धि के लिए कामों को परस्पर बांट लिया। यह विभाग करने कि प्रक्रिया पूर्ण रूप से योग्यता पर आधारित थी। कालांतर में वर्ण के स्थान पर जाति शब्द रूढ़ हो गया। मनुष्यों ने अपने वर्ण अर्थात योग्यता के स्थान पर अपनी अपनी भिन्न भिन्न जातियाँ निर्धारित कर ली। गुण, कर्म और स्वभाव के स्थान पर जन्म के आधार पर अलग अलग जातियों में मनुष्य न केवल विभाजित हो गया अपितु एक दूसरे से भेदभाव भी करने लगा। वैदिक वर्णाश्रम व्यवस्था के स्थान छदम एवं मिथक जातिवाद ने लिया।
शंका 2– मनुष्य को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र में विभाजित करने से क्या प्रयोजन सिद्ध हुआ?
समाधान– प्रत्येक मनुष्य दुसरो पर जीवन निर्वाह के लिए निर्भर है। कोई भी व्यक्ति परस्पर सहयोग एवं सहायता के बिना न मनुष्योचित जीवन व्यतीत कर सकता है और न ही जीवन में उन्नति कर सकता है। अत: इसके लिए आवश्यक था कि व्यक्ति जीवन यापन के लिए महत्वपूर्ण सभी कर्मों का विभाजन कर ले एवं उस कार्य को करने हेतु जो जो शिक्षा अनिवार्य है, उस उस शिक्षा को ग्रहण करे। सभी जानते है कि अशिक्षित एवं अप्रशिक्षित व्यक्ति से हर प्रकार से शिक्षित एवं प्रक्षिशित व्यक्ति उस कार्य को भली प्रकार से कर सकते है। समाज निर्माण का यह भी मूल सिद्धांत है कि समाज में कोई भी व्यक्ति बेकार न रहे एवं हर व्यक्ति को आजीविका का साधन मिले। विद्वान लोग भली प्रकार से जानते है कि जिस प्रकार से शरीर का कोई एक अंग प्रयोग में न लाने से बाकि अंगों को भली प्रकार से कार्य करने में व्यवधान डालता हैं उसी प्रकार से समाज का कोई भी व्यक्ति बेकार होने से सम्पूर्ण समाज को दुखी करता है। सब भली प्रकार से जानते हैं कि भिखारी, चोर, डाकू, लूटमार आदि करने वाले समाज पर किस प्रकार से भोझ है। इसलिए वेदों में समाज को विभाजित करने का आदेश दिया गया है कि ज्ञान के प्रचार प्रसार के लिए ब्राह्मण, राज्य कि रक्षा के लिए क्षत्रिय, व्यापार आदि कि सिद्धि के लिए वैश्य एवं सेवा कार्य के लिए शुद्र कि उत्पत्ति होनी चाहिए[ix]। इससे यही सिद्ध होता है कि वर्ण व्यवस्था का मूल उद्देश्य समाज में गुण, कर्म और स्वाभाव के अनुसार विभाजन है।
शंका 3 – आर्य और दास/दस्यु में क्या भेद है?
समाधान – वेदों में आचार भेद के आधार पर दो विभाग किये गये हैं आर्य एवं दस्यु। ब्राह्मण आदि वर्ण कर्म भेद के आधार पर निर्धारित है। स्वामी दयानंद के अनुसार ब्राह्मण से लेकर शुद्र तक चार वर्ण है और चारों आर्य है[x]। मनु स्मृति के अनुसार चारों वर्णों का धर्म एक ही हैं वह है हिंसा न करना, सत्य बोलना, चोरी न करना, पवित्र रहना एवं इन्द्रिय निग्रह करना[xi]।
आर्य शब्द कोई जातिवाचक शब्द नहीं है अपितु गुणवाचक शब्द है। आर्य शब्द का अर्थ होता है “श्रेष्ठ” अथवा बलवान, ईश्वर का पुत्र, ईश्वर के ऐश्वर्य का स्वामी, उत्तम गुणयुक्त, सद्गुण परिपूर्ण आदि। आर्य शब्द का प्रयोग वेदों में निम्नलिखित विशेषणों के लिए हुआ है।
श्रेष्ठ व्यक्ति के लिए (ऋग 1/103/3, ऋग 1/130/8 ,ऋग 10/49/3), इन्द्र का विशेषण (ऋग 5/34/6 , ऋग 10/138/3), सोम का विशेषण (ऋग 0/63/5),
ज्योति का विशेषण (ऋग 10/43/4), व्रत का विशेषण (ऋग 10/65/11), प्रजा का विशेषण (ऋग 7/33/7), वर्ण का विशेषण (ऋग 3/34/9) के रूप में हुआ है।
दास शब्द का अर्थ अनार्य, अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शुन्य, भृत्य, बल रहित शत्रु के लिए हुआ है न की किसी विशेष जाति के लोगों के लिए हुआ है। जैसे दास शब्द का अर्थ मेघ (ऋग 5/30/7, ऋग 6/26/5 , ऋग 7/19/2),अनार्य (ऋग 10/22/8), अज्ञानी, अकर्मा, मानवीय व्यवहार शुन्य (ऋग 10/22/8), भृत्य (ऋग), बल रहित शत्रु (ऋग 10/83/1) के लिए हुआ है।
दस्यु शब्द का अर्थ उत्तम कर्म हीन व्यक्ति (ऋग 7/5/6) अज्ञानी, अव्रती (ऋग 10/22/8), मेघ (ऋग 1/59/6) आदि के लिए हुआ है न की किसी विशेष जाति अथवा स्थान के लोगो के लिए हुआ है।
इन प्रमाणों से सिद्ध होता है कि आर्य और दस्यु शब्द गुण वाचक है, जाति वाचक नहीं है। इन मंत्रों में आर्य और दस्यु, दास शब्दों के विशेषणों से पता चलता है कि अपने गुण, कर्म और स्वभाव के कारण ही मनुष्य आर्य और दस्यु नाम से पुकारे जाते है। अतः उत्तम स्वभाव वाले, शांतिप्रिय, परोपकारी गुणों को अपनाने वाले आर्य तथा अनाचारी और अपराधी प्रवृत्ति वाले दस्यु है।
शंका 4 – वेदों में शुद्र के अधिकारों के विषय में क्या कहा गया है?
समाधान – स्वामी दयानंद ने वेदों का अनुशीलन करते हुए पाया की वेद सभी मनुष्यों और सभी वर्णों के लोगों के लिए वेद पढने के अधिकार का समर्थन करते है। स्वामी जी के काल में शूद्रों को वेद अध्यनन का निषेध था उसके विपरीत वेदों में स्पष्ट रूप से पाया गया की शूद्रों को वेद अध्ययन का अधिकार स्वयं वेद ही देते है। वेदों में ‘शूद्र’ शब्द लगभग बीस बार आया है। कही भी उसका अपमानजनक अर्थों में प्रयोग नहीं हुआ है और वेदों में किसी भी स्थान पर शूद्र के जन्म से अछूत होने ,उन्हें वेदाध्ययन से वंचित रखने, अन्य वर्णों से उनका दर्जा कम होने या उन्हें यज्ञादि से अलग रखने का उल्लेख नहीं है।
हे मनुष्यों! जैसे मैं परमात्मा सबका कल्याण करने वाली ऋग्वेद आदि रूप वाणी का सब जनों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, जैसे मैं इस वाणी का ब्राह्मण और क्षत्रियों के लिए उपदेश कर रहा हूँ, शूद्रों और वैश्यों के लिए जैसे मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिन्हें तुम अपना आत्मीय समझते हो , उन सबके लिए इसका उपदेश कर रहा हूँ और जिसे ‘अरण’ अर्थात पराया समझते हो, उसके लिए भी मैं इसका उपदेश कर रहा हूँ, वैसे ही तुम भी आगे आगे सब लोगों के लिए इस वाणी के उपदेश का क्रम चलते रहो[xii]।
प्रार्थना हैं की हे परमात्मा ! आप मुझे ब्राह्मण का, क्षत्रियों का, शूद्रों का और वैश्यों का प्यारा बना दें[xiii]।इस मंत्र का भावार्थ ये हैं की हे परमात्मा आप मेरा स्वाभाव और आचरण ऐसा बन जाये जिसके कारण ब्राह्मण, क्षत्रिय, शुद्र और वैश्य सभी मुझे प्यार करें।
हे परमात्मन आप हमारी रुचि ब्राह्मणों के प्रति उत्पन्न कीजिये, क्षत्रियों के प्रति उत्पन्न कीजिये, विषयों के प्रति उत्पन्न कीजिये और शूद्रों के प्रति उत्पन्न कीजिये[xiv]। मंत्र का भाव यह हैं की हे परमात्मन! आपकी कृपा से हमारा स्वाभाव और मन ऐसा हो जाये की ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारी रूचि हो। सभी वर्णों के लोग हमें अच्छे लगें, सभी वर्णों के लोगों के प्रति हमारा बर्ताव सदा प्रेम और प्रीति का रहे।
हे शत्रु विदारक परमेश्वर मुझको ब्राह्मण और क्षत्रिय के लिए, वैश्य के लिए, शुद्र के लिए और जिसके लिए हम चाह सकते हैं और प्रत्येक विविध प्रकार देखने वाले पुरुष के लिए प्रिय करे[xv]।
इस प्रकार वेद की शिक्षा में शूद्रों के प्रति भी सदा ही प्रेम-प्रीति का व्यवहार करने और उन्हें अपना ही अंग समझने की बात कही गयी है।
(जारी…)
भेद भाव आदमी ने अपनी स्वार्थ लिप्सा के लिए किया जाती धर्म में समाज को बाँट कर समाज को कमजोर किया ,एक प्रकार की प्रभुत्व की लालसा ने आदमी को लालची बनाया उस लालच ने वर्गों में बांटा मनुष्य को .. आप का आलेख बहुत उम्दा है .. दिग्भ्रमित लोगों की शायद आँखें खुले यह पढ़ कर
वेदों के बारे में धूर्त लोगों ने बहुत भ्रम फैलाये हैं. यह लेख उन भ्रमों को दूर करने में सफल रहेगा अगर इसको वे लोग पढ़ लें. ऐसे लेख के लिए हार्दिक साधुवाद !
बहुत अच्छी जानकारी दी है आप ने , आप का धन्यवाद करना बनता है. इस से मुझ को यह बात समझ आ गई कि पहले यह जाती भेद भाव नहीं था , यह समय के साथ साथ ऐसे होता चला गिया कि किसी को पता भी नहीं चला . किओंकि मैं भारत और यहाँ की दोनों बातें को जब तुलना करता हूँ तो देखता हूँ कि कभी वैदिक काल में भी यहाँ की तरह होता होगा. एक गोरे की मिसाल देता हूँ, एक गोरा जब सकूल से बाहिर आता है तो वोह कोई भी काम करने को राजी होता है. अगर वोह किसी बार में काम करता है तो उस को बार मैंन कहते हैं , अगर वोह यह काम छोड़ कर बस्सें चलाने लगता है तो उसे बस मैंन कहते हैं , अगर वोह यह छोड़ कर घरों से कूड़ा करकट उठाने का काम करता है तो उसे डस्ट मैंन कहते हैं , अगर वोह यह काम छोड़ कर फिर पड़ने लगता है और डिग्री लेकर डाक्टर बन जाता है तो वोह डाक्टर कहलाएगा. यानी उस की कोई पक्की जात नहीं . आप हैरान होंगे कि डस्ट मैंन की वेजज कम से कम १५ पाऊंड घंटा है और इस में सारे इंग्लैण्ड में एक भी इंडियन डस्ट मैनं नहीं है किओंकि हमारे दिमाग में खून में यह ही घुसा हुआ है कि यह भंगिओं का काम है. इंग्लैण्ड में जितनी टोएलेट क्लीनर हैं वोह गोरिआं और गोरे ही हैं . मेरा मानना है कभी भारत के वैदिक काल में भी यहाँ की तरह होता होगा.
बढ़िया बात कही है आपने भाईसाहब. सफाई सहित कोई भी कार्य करना घटिया कार्य नहीं है. मैं स्वयं अपने टॉयलेट की सफाई करता हूँ.
बहुत अच्छी जानकारी दिये हैं इस लेख के माध्यम से
धन्यवाद।