लघुकथा

इंतकाम

“सर प्लीज, मेरी जिंदगी का सवाल है, पैसों के लिए मुझे डिसक्वालीफाई मत करिए। मैंने रात-रातभर जाग के मेहनत की है, रिटेन से लेकर ओरल तक में मेरिट अचीव किया है फिर भी………”

“देखो अरिजीत, तुमसे मैंने पहले भी कहा है कि अकेले मेरे हाथ में नहीं है सब। नौकरी क्लर्क की है पर ऊपरी आमद बहुत होगी वहाँ। इसलिए १० लाख रुपये कोई ज्यादा नहीं है, दे सको तो आना” सेलेक्शन ऑफिसर मेहता झल्लाए

“सर मेरी बात समझिए, मेरे पास इतने रुपये नहीं हैं” अरिजीत मेहता जी के पैरों को पकड़ के बैठ गया

“अरिजीत जाओ चुपचाप यहाँ से, मुझे सोने दो….” ये वाक्य मुँह से निकलते मेहता जी को मानों किसी ने झकझोर दिया। वो तो अपने घर में अपने कमरे में सो रहे थे फिर ये सब क्या हो रहा? और जिस नौकरी की बात अरिजीत कर रहा था उसका तो सेलेक्शन प्रोसीजर भी पूरा हो चुका था। मेहता जी को अपने पैरोंपर दबाव बहुत कसा हुआ महसूस हुआ। वो अंदर तक काँप गये। नीचे अरिजीत की ओर देखा तो वो भयानक तरीके से मेहता जी को देख रहा था। उसकी गर्दन एक ओर लुढकी थी जैसे फाँसी के बाद होती है, आँखें भी उलट चुकी थीं।

“मैंने उसी दिन अपने आपको खत्म कर लिया था मेहता जिस दिन फाइनल लिस्ट जारी की थी तूने” अरिजीत की घिघियायी आवाज निकली लेकिन वो सुनने के लिए मेहता जी जिंदा नहीं थे। उनकी हृदयगति रुक चुकी थी और पसीने से नहाया उनका शरीर जमीन पर भहरा रहा था।

*कुमार गौरव अजीतेन्दु

शिक्षा - स्नातक, कार्यक्षेत्र - स्वतंत्र लेखन, साहित्य लिखने-पढने में रुचि, एक एकल हाइकु संकलन "मुक्त उड़ान", चार संयुक्त कविता संकलन "पावनी, त्रिसुगंधि, काव्यशाला व काव्यसुगंध" तथा एक संयुक्त लघुकथा संकलन "सृजन सागर" प्रकाशित, इसके अलावा नियमित रूप से विभिन्न प्रिंट और अंतरजाल पत्र-पत्रिकाओंपर रचनाओं का प्रकाशन

2 thoughts on “इंतकाम

  • विजय कुमार सिंघल

    हालांकि मैं भूत प्रेतों का अस्तित्व नहीं मानता, पर कहानी अच्छी है.

  • जय प्रकाश भाटिया

    इंतकाम

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