गज़ल : वो लम्हा ठहर गया होगा
जब मिटा कर नगर गया होगा
क्या वो लम्हा ठहर गया होगा
आइने की उसे न थी आदत
खुद से मिलते ही डर गया होगा
वह जो बस जिस्म का सवाली था
उसका दामन तो भर गया होगा
अब न ढूंढो कि सुबह का भूला
शाम होते ही घर गया होगा
खिल उठी फिर से इक कली “श्रद्धा”
ज़ख़्म था दिल में, भर गया होगा
very nice
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल.
बहुत ही सुन्दर गज़ल कही है आपने। इसके लिए हार्दिक बधाई। आपने लय और भाव दोनों अंत तक बरकरार रखा।