सामाजिक

जीवन की सफलता का मूल मन्त्र असतो मा सद् गमय

भारतीय धर्म व संस्कृति में वृहदारण्यकोपनिषद् के वाक्य असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमयेतिका विशेष महत्व है।  ‘असतो मा सद् गमयमें ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि मैं सत्य मार्ग पर चलूं। इसका अर्थ है कि मैं असत्य मार्ग पर न चलूं। प्रश्न उत्पन्न होता है कि सत्य मार्ग पर चलना आवश्यक क्यों है और असत्य मार्ग पर न चलना जरूरी क्यों है? सत्य मार्ग को ऋजु मार्ग भी कहते हैं। ऋजु मार्ग सीधा मार्ग होता है और अन्य मार्ग लम्बे व टेढ़े होने के साथ उन पर चलने से यात्री मार्ग भटक कर मंजिल से दूर चले जाते है। सत्य मार्ग वह मार्ग होता है जिस पर चल कर अन्ततः मंजिल या लक्ष्य की प्राप्ति निश्चित होती है। असत्य मार्ग उल्टा मार्ग है जिससे हम लक्ष्य के विपरीत चलते हैं या लक्ष्य से दूर होते जाते हैं। अब इस सूक्ति में जिस सतपथ की बात कही गई है, वह कौन सा पथ है और उस पर चल कर हम कहां पहुंचेंगे, यह विचार करना प्रासंगिक एवं आवश्यक है। हम मनुष्य हैं और मनुष्य नाम हमारे मननशील होने वा प्रत्येक कार्य को सत्य वा असत्य का विचार करके करने के कारण मिला है। मनन करने पर हमें ज्ञात होता है कि जीवन कर्मों को करने का नाम है। कर्म दो प्रकार के होते हैं जिन्हें अच्छा व बुरा, सत्य व असत्य, शुभ व अशुभ अथवा पुण्य वा पाप कह सकते हैं।

अब यह देखना है कि सत्य कर्म करने से क्या प्राप्त होता है और असत्य या पाप करने करने से मनुष्य को क्या लाभ व हानि होती है। सत्य कर्म ऐसा है कि एक विद्यार्थी तपपूर्वक अध्ययन कर परीक्षा दे तो उसे उसके पुरूषार्थ के अनुरूप फल व सफलता मिलती है और जो विद्यार्थी अध्ययन की उपेक्षा कर प्रतिगामी व विपरीत कार्य करता है, वह असफल होता है। इसी प्रकार से सत्य कर्मों को करके उन्नति व असत्य कर्म व कार्यों को करके अवनति होती है। उन्नति भी दो प्रकार की कह सकते हैं। एक तो सांसारिक उन्नति जिसमें सुख-सुविधाओं की वस्तुओं की प्राप्ति व धन सहित शारीरिक उन्नति को भी सम्मिलित कर सकते हैं और दूसरी उन्नति आध्यात्मिक उन्नति होती है। आधात्मिक उन्नति का अर्थ है कि यदि हम संसार की उत्पत्ति, स्थिति व प्रलय की अवस्था पर विचार करते हैं तो हमें यह सृष्टि परमाणुओं से बनी हुई दृष्टिगोचर होती है। इन परमाणुओं को हम अनादि व मूल प्रकृति, अनुत्पन्न, नित्य, अजन्मा, सनातन व अविनाशी कह सकते हैं। मूल प्रकृति के इन परमाणुओं का संयोग कराने वाला कोई अवश्य होना चाहिये जिससे सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व अन्य सभी पदार्थों की उत्पत्ति हो सके। वह सत्ता ईश्वर है। इससे ईश्वर का अस्तित्व होना सिद्ध होता है। इस पर निरन्तर व नियमित रूप से चिन्तन करने पर ईश्वर, जीवात्मा व प्रकृति का ज्ञान होता है जिससे हमारी ईश्वर से निकटता होकर हम उसकी उपासना में संलग्न हो जाते हैं। इसका फल हमारे गुण, कर्म व स्वभाव में परिवर्तन होकर वह ईश्वर के अनुरूप बन जाते हैं। इन शुभ कर्मों की वृद्धि और पूर्व पाप व असत्य कर्मों का भोग हो जाने पर मनुष्य की इस जन्म व परजन्म में उन्नति होती है। सत्य मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति का भावी जन्म अच्छी योनि, अच्छे कुल व अच्छे प्रदेश व लोक में होना शास्त्र प्रमाण व तर्क से सिद्ध होता है। कालान्तर में सत्य व शुभ कर्मों की वृद्धि व ईश्वर से अति-निकटता वा असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति होने पर जीवात्मा वा मनुष्य अशुभ कर्म से निवृत होकर जन्म मरण से छूट जाता है। इस अवस्था का नाम मुक्ति होता है जिसका वर्णन हमारे शास्त्रों और महर्षि दयानन्द सरस्वती कृत सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों में उपलब्ध है। इसके विपरीत असत्य मार्ग पर चलने व अशुभ कर्म करने से मनुष्य बन्धनों में फंस कर, अवनति को प्राप्त होकर अपने वर्तमान व भावी जीवन अर्थात् पुनर्जन्म को बिगाड़ लेता है। अतः असतो मा सद् गमयका सन्देश जीवन को उन्नति के पथ पर आरूढ़ करना व अपनी वर्तमान स्थिति को सुधार कर लक्ष्य व लक्ष्यों की प्राप्ति है।

संसार में अनेक महापुरुषों के जीवन हमें ज्ञात हैं। यह सब ‘असतो मा सद् गमय के ही प्रतीक हैं। संसार में जिन जन्म लेने वाले व्यक्तियों की चर्चा नही की जाती, वह प्रायः इस मन्त्र-विचार-सूक्ति के विपरीत आचरण करने वाले सामान्य कोटि के लोग होेते हैं। महर्षि दयानन्द संसार के सभी मनुष्यों से भिन्न महापुरूष थे। उन्होंने संस्कृत के अलौकिक आर्ष व्याकरण के अध्ययन के साथ अपने समय में उपलब्ध वेद, शास्त्रीय ग्रन्थों व सहस्त्रों अन्य ग्रन्थों को भी पढ़ा व समझा था। उन्होंने योग का सफल अभ्यास कर असम्प्रज्ञात समाधि को भी सिद्ध किया था। अपने गुरू प्रज्ञाचक्षु दण्डी विरजानन्द सरस्वती से आर्ष व्याकरण एवं शास्त्रों का अध्ययन करने के बाद उनकी प्ररेणा से उन्होंने संसार को सत्य मार्ग पर चलाने की प्रतीज्ञा की थी और उसे प्राणपण से पूरा करने का प्रयास किया। सत्य पथ पर चलते हुए उन्होंने लगभग 18 बार विषपान किया परन्तु सतपथ का मार्ग नहीं छोड़ा। उनका सारा जीवन असतो मा सदगमय का जीता जागता व सर्वोत्तम उदाहरण है। जो विशेषता उनके जीवन में है वह अन्य महापुरुषों के जीवन में देखने को नहीं मिलती। उनके जीवन चरित्र का अध्ययन कर तथा उसे आचरण में लाकर भी हम अपने जीवन को उन्नत बना सकते हैं। उन्होंने इसी उद्देश्य से सत्यार्थ प्रकाश नाम से संसार का अनूठा व अपूर्व ग्रन्थ लिखा है। 14 समुल्लासों में रचित इस ग्रन्थ के प्रथम 10 समुल्लास असतो मा सद्-गमय का क्रियात्मक रूप प्रस्तुत करते हैं तथा अन्त के 4 समुल्लास तमसो मा ज्योतिर्गमय का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। इस ग्रन्थ का अध्ययन करना समुद्र में एक गोता लगाना और बहुमूल्य मोतियों को पाने के समान है और अन्यत्र श्रम करना मानों सारा जीवन गवांकर कौडि़यों को पाना है। सभी मनुष्यों को न्यूनातिन्यून एक बार निष्पक्ष होकर इस ग्रन्थ का अध्ययन अवश्य करना चाहिये। सत्यार्थ प्रकाश का अध्ययन करने से वेदों के सत्य स्वरुप का ज्ञान भी होता है। वेद स्वयं भी असतो मा सद् गमय तमसो मा ज्योतिर्गमय अमृतो मा अमृतं गमयका ही ज्ञान प्राप्त कराकर इनकी प्राप्ति के साधनों का भी मार्ग प्रशस्त करते हैं। वेदेतर संसार में जितने भी धार्मिक ग्रन्थ हैं उनमें सत्य भी है और बहुत कुछ असत्य भी है, जिसका दिग्दर्शन सत्यार्थ प्रकाश में कराया गया है। अतः वेदों व सत्यार्थ प्रकाश के आलोक में सभी ग्रन्थ सत्यासत्य को सामने रखकर विचारणीय व संशोधनीय है। यह ऐसा ही है जैसे हम ज्ञान व विज्ञान के क्षेत्र में नित्यप्रति इसे अपडेट व संशोधित करते रहते हैं। यदि ऐसा न करते तो संसार में जो आज उपलब्धियां प्राप्त हुई हैं, वह न र्हुइं होतीं। यही कार्य धार्मिक ग्रन्थों में भी होना चाहिये अर्थात सत्य का अनुसंधान और तदानुसार संशोधन।

सत्य का अनुसंधान कर महर्षि दयानन्द ने मानव समाज की सर्वांगीण उन्नति का एक नियम बनाया। वह नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। यह नियम भी असतो मा सद् गमय व तमसो मा ज्योतिर्गमय का ही रूपान्तर व पर्याय है। इसी को भिन्न प्रकार से उन्होंने एक अन्य नियम में भी कहा है कि सब काम धर्मानुसार अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिये। अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये यह भी असतो मा सद् गमय का ही एक रूप है। इसी क्रम में सभी मतों के अनुयायियों के लिए यह भी विचारणीय है कि क्या हम, सभी व कोई एक भी, कर्म के फलों से बच सकते हैं? इसका उत्तर है कदापि नहीं। मांसाहार, अण्डे का सेवन, सामिष भोजन, धूम्रपान, मदिरापान, असत्य भाषण व व्यवहार एवं दूसरों का अपकार करना अशुभ व अवैदिक कर्म हैं। इन कर्मों को करके हम कर्म बन्धन में फंसते हैं। हमें यह भी जानना है कि पुनर्जन्म का सिद्धान्त केवल हिन्दुओं, सिखों, बौद्धों व जैनियों के लिए ही नहीं है अपितुयह नियम व सिद्धान्त संसार के सभी मनुष्यों व मनुष्येतर प्राणियों पर भी लागू होता है। इसका कारण है कि संसार में ईश्वर एक है। वही सब मनुष्यों व प्राणियों को उनके कर्मों व प्रारब्ध के अनुसार जन्म देता है। उसका पुनर्जन्म का सिद्धान्त भी सभी मतों व धर्म के लोगों के लिए एक समान है। अतः जीवन की आध्यात्मिक व भौतिक उन्नति के लिए वैदिक मान्यताओं व सिद्धान्तों किंवा वैदिक धर्म को अपनाना सभी के लिए आवश्यक है जिससे हम मनुष्य जीवन के सर्वोत्तम पुरुषार्थ धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष से वंचित न हों। निर्णय करना हमारे व सभी मतों के मानने वाले अनुयायियों के हाथ में है। इसी क्रम में यह भी विचार व तर्क सिद्ध है कि संसार में स्वर्ग, जन्नत, नरक व दोजख आदि सब इस पृथिवी व इसके समान अन्य लोकों पर ही है। अच्छे कर्मों का फल सुख है और सुख विशेष ही स्वर्ग है। इसी प्रकार अशुभ कर्मों का परिणाम दुःख है और उसका परिणाम नरक आदि भोग हैं। जीवात्मा जन्म लेकर ही सुख व दुःख का भोग कर सकता है। मृत्यु व अगले जन्म के बीच जीवात्मा को कोई सुख व दुख नहीं होता। यह अवस्था एक प्रकार से सुषुप्ति की अवस्था होती है जिसमें जीवात्मा को इन्द्रियों से अनुभव होने वाले सुख व दुख अनुभव नहीं होते। इस विवेचना से यह निष्कर्ष निकलता है कि वेदाध्ययन सभी को अवश्य करना चाहिये अन्यथा हमें उन्नति व मुक्ति का लाभ नहीं होगा और हम बार-बार जन्म लेकर मृत्यु को प्राप्त होते रहेंगे।

यजुर्वेद का एक प्रमुख मन्त्र है, ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव। यद् भद्रन्तन्न आसुव।। इस मन्त्र में सर्वशक्तिमान ईश्वर से प्रार्थना की गई है कि ईश्वर मेरे सभी दुगुर्ण, दुव्र्यस्न और दुःखों को दूर करे और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव व पदार्थ हैं, वह सब हमें प्राप्त कराये। यह प्रार्थना भी असतो मा सद्् गमय की पूरक होने से सत्य मार्ग पर चलने के लिए प्रोत्साहित करती है। आईये, जीवन को सत्य मार्ग पर चलाते हुए जीवन से तम व अन्धकार को दूर करें और अमृत वा मोक्ष की प्राप्ति करें।

 

-मनमोहन कुमार आर्य

2 thoughts on “जीवन की सफलता का मूल मन्त्र असतो मा सद् गमय

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत सुन्दर और सार्थक लेख.

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी।

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