कविता

डरती हूँ माँ !!!

माँ !
है चाहत मेरी
रहूँ कैद घर में ही
ताकि
बची रहे आबरू मेरी ।

डरती हूँ
बन न जाऊँ कहीं
दामिनी ।

यह घूरती आँखें
अंदर तक देती है सहमा ।

माँ !
लार टपकाते पुरुष
और
ललचायी नजरों के लिए
क्यों हूँ महज
उपभोग की वस्तु ।

मुझे रहने दो
इन्हीं चहारदीवारियों में ।
ताकि
बाहर की हवा
अंदर तक न पहुँच पाए
और मैं रह पाऊँ महफूज ।

किन्तु माँ ?
देर-सवेर जब ये हवाएँ
पहुँच जाएगी घर तक
तो कैसे बच पायेगा अस्तित्व मेरा ।।

मुकेश कुमार सिन्हा, गया

रचनाकार- मुकेश कुमार सिन्हा पिता- स्व. रविनेश कुमार वर्मा माता- श्रीमती शशि प्रभा जन्म तिथि- 15-11-1984 शैक्षणिक योग्यता- स्नातक (जीव विज्ञान) आवास- सिन्हा शशि भवन कोयली पोखर, गया (बिहार) चालित वार्ता- 09304632536 मानव के हृदय में हमेशा कुछ अकुलाहट होती रहती है. कुछ ग्रहण करने, कुछ विसर्जित करने और कुछ में संपृक्त हो जाने की चाह हर व्यक्ति के अंत कारण में रहती है. यह मानव की नैसर्गिक प्रवृति है. कोई इससे अछूता नहीं है. फिर जो कवि हृदय है, उसकी अकुलाहट बड़ी मार्मिक होती है. भावनाएं अभिव्यक्त होने के लिए व्याकुल रहती है. व्यक्ति को चैन से रहने नहीं देती, वह बेचैन हो जाती है और यही बेचैनी उसकी कविता का उत्स है. मैं भी इन्हीं परिस्थितियों से गुजरा हूँ. जब वक़्त मिला, लिखा. इसके लिए अलग से कोई वक़्त नहीं निकला हूँ, काव्य सृजन इसी का हिस्सा है.

2 thoughts on “डरती हूँ माँ !!!

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मौजूदा ज़माने की तस्वीर खींच दी , जो हो रहा है .

  • जय प्रकाश भाटिया

    लड़की जब है प्यारी कन्या, तब उसकी पूजा करते हैं सब,

    फिर क्यों उसके
    बालिग होने पर, शील रूप
    नहीं रखतें है हम,

    लड़की बेटी बहन और
    पत्नी रूप में कितना सुख देती है,

    फिर सृष्टि की
    संचालक बन ,मां का रूप भी
    धर लेती है,

    आओ मिल कर करें
    प्रतिज्ञा, नारी का सम्मान
    करेंगे ,

    कभी न हो नारी का
    शोषण, मिल कर ऐसा काम
    करेंगे,

    नारी से ही घर की
    शोभा, नारी ही है हर घर की
    इज्ज़त,

    नारी को पूज्य नज़रों
    से देखो, चमकेगी हम सबकी
    किस्मत.

    —–जय प्रकाश भाटिया

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