डरती हूँ माँ !!!
माँ !
है चाहत मेरी
रहूँ कैद घर में ही
ताकि
बची रहे आबरू मेरी ।
डरती हूँ
बन न जाऊँ कहीं
दामिनी ।
यह घूरती आँखें
अंदर तक देती है सहमा ।
माँ !
लार टपकाते पुरुष
और
ललचायी नजरों के लिए
क्यों हूँ महज
उपभोग की वस्तु ।
मुझे रहने दो
इन्हीं चहारदीवारियों में ।
ताकि
बाहर की हवा
अंदर तक न पहुँच पाए
और मैं रह पाऊँ महफूज ।
किन्तु माँ ?
देर-सवेर जब ये हवाएँ
पहुँच जाएगी घर तक
तो कैसे बच पायेगा अस्तित्व मेरा ।।
मौजूदा ज़माने की तस्वीर खींच दी , जो हो रहा है .
लड़की जब है प्यारी कन्या, तब उसकी पूजा करते हैं सब,
फिर क्यों उसके
बालिग होने पर, शील रूप
नहीं रखतें है हम,
लड़की बेटी बहन और
पत्नी रूप में कितना सुख देती है,
फिर सृष्टि की
संचालक बन ,मां का रूप भी
धर लेती है,
आओ मिल कर करें
प्रतिज्ञा, नारी का सम्मान
करेंगे ,
कभी न हो नारी का
शोषण, मिल कर ऐसा काम
करेंगे,
नारी से ही घर की
शोभा, नारी ही है हर घर की
इज्ज़त,
नारी को पूज्य नज़रों
से देखो, चमकेगी हम सबकी
किस्मत.
—–जय प्रकाश भाटिया