ग़ज़ल : लफ्ज़ की मोहताज है कहाँ चाहत
चश्मे गिरयाँ में गुहर बन के ठहर जाती है,
वही हंसी जो कभी लब पे बिखर जाती है।
किसी भी लफ्ज़ की मोहताज है कहाँ चाहत,
वो तो आँखों से रग-ए- जाँ में उतर जाती है।
दिन की चौखट पे अगर धूप जला जाती है,
चांदनी शब की मुंडेरों पेबिखर जाती है।
इश्क़ का नाम अगर मौज पे लिख दे कोई,
बे-ख़तर हो के वो तूफां से गुज़र जाती हैं ।
तेज़ तूफान में इक वादा निभाने के लिए,
अपने वो कच्चे घड़े ले के उतर जाती है।
ढूंढ़ती फिरती है दीवाने को सहरा सहरा,
क्यों मोहब्बत ये बियाबान में मर जाती है।
“प्रेम” की बस्ती अंधेरों की मुख़ालिफ़ है सदा,
नूर होता है जहाँ तक भी नज़र जाती है!
1चश्मे गिरयाँ=रोने वाला, 2 गुहर= मोती, 3 रग-ए-जाँ = जान की नस, 4 मौज= लहर, 5 सहरा=रेगिस्तान, 6 मुख़ालिफ़=विरोधी
प्रेम लता बहन , कविता अति सुन्दर लगी , आप ने १९४७ में जनम लिया लेकिन मैं ने तो १९४३ में जनम लिया , वोह पार्टीशन की बहुत सी बातें अभी भी याद हैं , और हाँ फगवारा से लुधिआना दूर नहीं है.