लहू के रिश्ते
आग सुलगती है नफ़रत की मन में
आँखे फिर भी झरती हैं!!
कब्र खुदी है इंसानियत की ,
मानवता आहें भरती है!!
अपने वक्त का अनमोल खजाना,
जिन रिश्तों पर था लुटाया!!
वक्त क्या बदला ऐसे बदले,
गिरगिट भी देख शरमाया!!
आग सुलगती है नफ़रत की मन मैं,
आँखे फिर भी झरती हैं!!
लहु के इन रिश्तों से देखो,
कि गंध बारूद की झरती है!!
वक्त की आँच से इन रिशतों कि,
बगिया की देखो न कुम्हलाये!!
यौवन की खाद को डाला इसमें,
खूँ पसीने से करी सिंचाई!!
देखो आज जब बगिया मैं इनकी,
फ़ूल खुशियों के लहलहायें हैं!!
माली के वजूद पर ही देखो,
सवाल इन लोगों ने उठाये हैं!!
देख हरियाली खुश था माली,
दिल से आह पर निकल जाती है!!
काश कि रिश्तों कि जगह अपनी,
मेहनत मिटटी पर लगायी होती!!
कुछ गरीबों के घर चूल्हे जलते,
उनके बच्चों के भी पेट भरते!!
देते दुआयें हाथ उठाये…
जब फ़सल लहलहा उठती!!
“आशा”कैसे रिश्ते हैं ये,
अपनायत जिनमें मर चुकी है!!
सुलग उठता है हवन कुंड मन का,
रिश्तों की आहुती चढ़ती है!!
आग सुलगती है नफ़रत की मन मैं,
आँखे फिर भी झरती हैं!!
…राधा श्रोत्रिय “आशा”
बहुत खूब !