साहित्य और समाज
“समाज नष्ट हो सकता है, राष्ट्र भी नष्ट हो सकता है, किन्तु साहित्य का नाश कभी नहीं हो सकता।“ ये उक्ति महान विद्वान योननागोची की है। जिससे हम साहित्य की महत्ता को जान सकते हैं। साहित्य कहते ही हमारे दिमाग में खयाल आता है कि किताब, ग्रंथ आदि का भंडार। और समाज के बारे में अवधारणा है कि मनुष्य, प्राणी एवं वस्तुओं का समूह। साहित्य शब्द स+हित से बना है अथवा साहित्य में हित का भाव रहता है। असल में साहित्य का मुख्य उद्देश्य व्यक्ति और समाज का हित करना होता है। जिस साहित्य से समाज का हित नहीं साधा जाता उसे साहित्य नहीं कहा जा सकता, और वह साहित्यकार भी खरा नहीं उतरता। साहित्य की अनेक परिभाषाएँ हम देखेंगे तो ध्यान में आ जायेगा कि साहित्य समाज से व्यतिरिक्त नहीं है। बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य को ‘जन समूह के हृदय का विकास’ माना है तो महावीर प्रसाद द्विवेदी जी ने साहित्य को ‘ज्ञानराशि का संचित कोश’ माना है । सामाजिक जीवन और सामाजिक ज्ञान ही साहित्य के लिए साधन हैं। साहित्य का आधार जीवन है। रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को ‘जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब’ माना है । साहित्य समाज में होने वाली घटनाओं को केवल हूबहू प्रस्तुत नहीं कर देता बल्कि समस्याओं से निकलने की राह भी दिखाता है । साहित्य के लिए हर साहित्यकार कथावस्तु को समाज से ही उठा लेता है। शायद इसीलिए प्रेमचंद ने ‘साहित्य को समाज के आगे.आगे चलने वाली मशाल’ कहा है । इसके साथ ही वह साहित्य का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना नहीं मानते हैं बल्कि साहित्य को व्यक्ति के ‘विवेक को जाग्रत करने वाला’ तथा ‘आत्मा को तेजोदीप्त’ बनाने वाला मानते हैं । कहने का अर्थ यह है कि सभी विद्वान साहित्य से समाज के घनिष्ट सम्बन्ध तो स्वीकार करते हैं । और यह मानना भी चाहिए कि साहित्य समाजोपयोगी हो, सामाजिक जीवन को प्रतिष्ठापित करता हो। इसलिए मैथिलीशरण गुप्त जी कहते हैं-
“केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिर।
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए ॥“
साहित्य और समाज का अटूट संबंध है। साहित्य समाज का प्रतिबिंब भी है और मार्गदर्शक भी। मानव समाज का हित चिंतन और उसका पथ प्रदर्शन करना साहित्य का लक्ष्य है। साहित्य समाज की चेतना को विकसित करता है। बिना किसी लक्ष्य के लिखा गया साहित्य कूड़ा कचरा मात्र है। क्योंकि अगर साहित्य अपने लक्ष्य से चूक गया तो समाज का मार्गदर्शन कैसे हो सकता है। इसीलिए समय-समय पर साहित्यकारों ने समाज की तत्कालीन समस्याओं की ओर ध्यान आकर्षित किया है और उनका समाधान भी सुझाया है। और शायद यह साहित्य का कर्तव्य भी बन पडता है। सब जानते हैं कि साहित्य सृजन हमारा भौतिक सौन्दर्य नही है बल्कि वह हमारी आत्मा का सौन्दर्य है वह हमारी भावना और मानस का सौन्दर्य है । मनुष्य के प्रत्येक विचार उसके भाव, उसके कार्य, समुदाय अथवा समाज के भावों, विचारों तथा कार्यों से अभिन्न रूप से सम्बद्ध रखते हैं । इसलिए साहित्यकारों के बारे में यशपाल जी कहते हैं- ’ आदर्श साहित्यकार और पत्रकार वही है, जो समाज की पीडा और सुख का अनुभव कर समाज के लिए रोता और हँसता है।’
प्राचीन काल में साहित्य का सृजन स्वान्त-सुखाय के लिए होता था या राजा-महाराजाओं को खुश करने के लिए होता था। पर बीच में एक ऐसा समय आया साहित्यकार अभावों में रहते समाज के बारे में लिखने लगें। वे साहित्यकार अपना खून सुखाकर साहित्य का नव-सृजन करते थे। मुंशी प्रेमचंद के बारे में कहा जाता है कि वे बेहद अभावों के बीच साहित्य-सृजन करते थे। उनके पास कई जरूरी स्टेशनरी भी नहीं हुआ करती थी। उनके घर में उस जमाने में बिजली भी नहीं थी। चिमनी की रोशनी में मुंशीजी लिखा करते थे। यह ‘साहित्य का धनी’ किंतु आर्थिक दृष्टि से अत्यंत गरीब साहित्यकार अपने साहित्य रचना-कौशल में इतना डूब जाता था कि कब रात हुई और कब सुबह हुई, उसे खुद ही पता नहीं चलता था। साहित्य-सृजन के चलते उन्हें कई बार अपनी पत्नी की डांट भी खानी पड़ती थी। मुंशीजी कई बार कंबल के अंदर (या आड़ में) चिमनी की रोशनी में साहित्य-सृजन करते थे ताकि पत्नी की नीद में कोई परेशानी न हो। इस तरह कष्ट सहकर लिखने वाले साहित्यकार अब कहां हैं? अपने कष्टों को दबोकर दूसरों को सुख देनेवाले, प्रोत्साहित करनेवाले साहित्यकार अब कहाँ हैं? अब तो अर्थ बिना साहित्य का सृजन कहां होता है? लेखक लिखने से पहले भावताव तय कर लिया करते हैं। प्रकाशक ‘अपने हिसाब से’ लेखकों से लिखवाया करते हैं। तो रचनाकार और प्रकाशक के इस तरह के व्यवहार से साहित्य में मौलिकता कहाँ रहेगी? वैसे देखा जाए तो आजकल लेखक के सामने भी अनेक कटिनाइयाँ है उसी के बदौलत समाज में भी कठिन प्रसंग आन पडते हैं। हाँ हमें यह भी मानकर चलना होगा कि इस जटिल समय में साहित्य का सृजन दिल से कम दिमाग से ज्यादा होता है। और ऐसा साहित्य समाज के लिए संकट भी बन सकता है। इसलिए एक परिसंवाद कार्यक्रम में डॉ. सत्यनारायण व्यास जी ने कहा कि ’जो साहित्य समाज के लिए उपयोगी न हो उसे साहित्य मानना भूल होगी। प्रेमचन्द की अमर कहानी ‘कफन’ को याद करते हुए उन्होंने कहा कि ’कफन’ जैसी रचनाएँ साहित्य की शक्ति का असली परिचय देती हैं जिसे पढने के बाद दलितों–वंचितों के प्रति हमारी दृष्टि ही बदल जाती है।’ सच में ’कफन’ तत्कालीन समाज के लिए संकटमोचक बना था।
इसलिए स्पष्ट रुप से कह सकते हैं कि साहित्य और समाज दोनों कदम से कदम मिलाकर चलते हैं। समाज के बिना साहित्य का सृजन कैसे संभव है? समाज का चित्रण ही साहित्य में होता है। और साहित्य के आधार पर ही समाज में परिवर्तन होते हैं। साहित्य के लिए साधन तो समाज ही है, साहित्य में व्यक्त चित्रण समाज का ही प्रतिबिम्ब होता है। इसलिए इस आधुनिक सामाजिक जटिल परिस्थिति के बारे में हिन्दी के वरिष्ठ कवि श्री राजेश जोशी जी कहते हैं-
“ सबसे बडा अपराध है इस समय
निहत्ये और निरपराध होना
जो अपराधि नहीं होंगे
मारे जायेंगे॥ “
साहित्य का उद्देश्य ही समाज का हित साधते हुए और उन्नति के मार्ग पर ले जाना होता है। साहित्य का समाज पर क्रान्तिकारी प्रभाव पड़ता है। साहित्यकार समाज का प्रतिनिधित्व करता है और समाज को विचार प्रदान करता है। समाज जब किसी बुराई की चपेट में आता है,साहित्यकार दूर करने का अथक प्रयास करता है। साहित्यकारों ने सदा ही समाज को राह दिखाने का काम किया है। आप सोच सकते हैं कि साहित्य का उद्देश्य क्या हो- सामाजिक बुराईयों का तिरस्कार-बहिष्कार का ऐलान करें, मानव से मानव को जोड़ने की बात करें और हाशिये के आदमी का पक्षधर भी हो।
हम सब मानकर चलते हैं कि समाज का प्रभाव साहित्य के कथावस्तु पर पडता है, पर इतना ही नहीं बल्कि रचना के हर स्तर पर यहाँ तक कि शिल्प, भाषा, संरचना सबमें समाज की अभिव्यक्ति होती है। प्रतिबिम्ब दिखाई पडता है। इस संदर्भ में अमृतलाल नागर का ‘गदर के फूल’, मैथिलीशरण गुप्त का ‘भारत.भारती’, फणीश्वरनाथ रेणु का ‘मैला आंचल’, प्रेमचंद का ‘गोदान’ जैसे काव्य संग्रह, कहानि, उपन्यास, नाटक आदि साहित्य को हम देखेंगे तो सामाजिक चिंतन, सामाजिक न्याय का अनुभव करेंगे। इस तरह समाज साहित्य का साधन है और साहित्य समाज का पथदर्शक है। साहित्य और समाज एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। और ये हमेशा साथ-साथ ही चलेंगे।
*****
बचपन में पढ़ा था – ‘साहित्य समाज का दर्पण है’. आपके लेख ने उसे ताज़ा कर दिया. अच्छा लेख, डॉ साहब.