पतझड़
पीले पत्तोँ की खरखराहट मेँ
सुनती हूँ मैँ
तुम्हारे कदमोँ की आहट
उसकी चरमराहट
मुझे सुकून देती है
कि तुम आ गए हो
काश कि वह चरमराहट
तुम्हारी पदचाप ही हो . . .
बीते बसंत जब तुम चले गए थे
आने का वादा करके
हर पतझड़ लेकर आता है
सौगात तुम्हारी यादोँ का
तुम्हारे वादोँ का
जो भूल नहीँ सकती कभी भी
तुम्हारे कदमोँ की आहट
साक्षी है ये ठूंठ नजारे
वह तुम ही हो . . .
सूखे पत्ते बिछे हैँ
तेरे राह मेँ
जब तुम आओगे
तो शायद बसंत आ जाए
भूल कर पतझड़ की आहट
बहे बसंती वयार
हाँ,शायद तुम ही हो . . .
— सीमा संगसार
बहुत अच्छी कविता है.
बढ़िया कविता !
उम्दा रचना