कविता

पतझड़

पीले पत्तोँ की खरखराहट मेँ
सुनती हूँ मैँ
तुम्हारे कदमोँ की आहट
उसकी चरमराहट
मुझे सुकून देती है
कि तुम आ गए हो
काश कि वह चरमराहट
तुम्हारी पदचाप ही हो . . .

बीते बसंत जब तुम चले गए थे
आने का वादा करके
हर पतझड़ लेकर आता है
सौगात तुम्हारी यादोँ का
तुम्हारे वादोँ का
जो भूल नहीँ सकती कभी भी
तुम्हारे कदमोँ की आहट
साक्षी है ये ठूंठ नजारे
वह तुम ही हो . . .

सूखे पत्ते बिछे हैँ
तेरे राह मेँ
जब तुम आओगे
तो शायद बसंत आ जाए
भूल कर पतझड़ की आहट
बहे बसंती वयार
हाँ,शायद तुम ही हो . . .

सीमा संगसार

सीमा सहरा

जन्म तिथि- 02-12-1978 योग्यता- स्नातक प्रतिष्ठा अर्थशास्त्र ई मेल- [email protected] आत्म परिचयः- मानव मन विचार और भावनाओं का अगाद्य संग्रहण करता है। अपने आस पास छोटी बड़ी स्थितियों से प्रभावित होता है। जब वो विचार या भाव प्रबल होते हैं वही कविता में बदल जाती है। मेरी कल्पनाशीलता यथार्थ से मिलकर शब्दों का ताना बाना बुनती है और यही कविता होती है मेरी!!!

3 thoughts on “पतझड़

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी कविता है.

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया कविता !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    उम्दा रचना

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