कर्नाटक में हिन्दी की स्थितिगति
कर्नाटक राज्य दक्षिण भारत का एक बडा राज्य है। इसका भू विस्तार 1,91,756 च.कि.मी. है। यहाँ की आबादी लगभग 6 करोड से भी ज्यादा है, और साक्षरता का प्रमाण 75 प्रतिशत से भी ज्यादा है। जनसंख्या की दृष्टि से भारत में नौवा स्थान और भौगोलिक दृष्टि से सातवाँ स्थान प्राप्त है। औअर कर्नाटक चंदन एवं सोने की खान है। इतना सबकुछ होते हुए भी यहाँ की शिक्षा पध्दति मात्र निराली है।
भारत स्वतंत्रता के बाद शिक्षा पध्दति किस माध्यम में हो यही एक बडी समस्या थी और उसी समस्या से कर्नाटक भी जूझ रहा था। भारत में एक सूत्र शिक्षा पध्दति के बारेमे अनेक समस्याएँ थी, तो तब “कोठारी और मेहता आयोग” ने सन १९६४ में ‘त्रिभाषा सूत्र’ का हल बनाया। इस त्रिभाषा सूत्र के अनुसार प्रादेशिक भाषा कन्नड, राष्ट्रभाषा हिन्दी और अंग्रेजी को द्वितीय या तृतीय भाषा के रुप में पढाया जाये। मगर कर्नाटक में तो अंग्रेजी भाषा को ही द्वितीय स्थान दिया गया। यहाँ का ‘त्रिभाषा सूत्र’ इस प्रकार है- प्रादेशिक भाषा (प्रथम भाषा)- कन्नड, द्वितीय भाषा – अंग्रेजी और तृतीय भाषा – हिन्दी के रुप में उसका अनुसरण किया जा रहा है। यह सूत्र पहली कक्षा से लेकर दसवीं कक्षा तक लागू किया गया था। परन्तु इस संदर्भ में हिन्दी भाषा को अन्याय ही हुआ है।
हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा है। कर्नाटक में अंग्रेजी भाषा को जितना महत्व दिया है, उतना महत्व हिन्दी भाषा को नहीं है। क्योंकि कर्नाटक में पहली कक्षा से ही अंग्रेजी पढाई जाती है, लेकिन राष्ट्रभाषा हिन्दी मात्र छठी कक्षा से पढाई जा रही है। यहाँ के सरकार के अनुसार या मनोवैज्ञानिक सूत्र के अनुसार पता नहीं, कर्नाटक में पहली कक्षा से मातृभाषा कन्नड के साथ-साथ अंग्रेजी पढाई जाती है, पर राष्ट्रभाषा हिन्दी पढाई नहीं जा सकती। यह कितना विपर्यास है, यहाँ की शिक्षा पध्दति का। यह है कर्नाटक में रष्ट्रभाषा हिन्दी की दयनीय परिस्थिति।
सिर्फ तृतीय भाषा के रुप में हिन्दी दसवीं कक्षा तक पढाई जाती है। अब सोचने की बात है कि दस सालों तक मातृभाषा को ही पढाते समय बच्चे ठीक ढंग से मातृभाषा नहीं सीख पाते तो इस पाँच साल में एक अपरिचित भाषा को सिखाना खिलवाड ही मानना योग्य है। उसके उपरांत इंटरमिडिएट कालेजों में हिन्दी को विकल्प के रुप में रखा गया है। और वो भी सरकारी इंटरमिडिएट कालेजों में हिन्दी विषय ही नहीं है। 50 प्रतिशत से भी ज्यादा कालेज अनेक संघ-संस्थाओं द्वारा चलाये जाते हैं, वहाँ पर मात्र हिन्दी पढाई जाती है। इससे और एक संकट पैदा हुआ है कि माध्यमिक पाठशाला के हिन्दी भाषा के शिक्षकों ने हिन्दी में M.A, M.Phil. Ph.D. में अनेक स्नातकोत्तर उपाधियाँ प्राप्त की है लेकिन उन्हे कोई पदोन्नति नहीं मिलती। क्योंकि उच्चतर सरकारी महाविद्यालयों में हिन्दी विषय ही नहीं है।
कुल मिलाकर हिन्दी की स्थितिगति इसी तरह आगे बढती गई तो एक दिन हिन्दी कहीं खो जायेगी। किसी और राष्ट्रभाषा राज्यभाषा की तलाश करनी होगी। इसका एक ही हल है एक रुप की शिक्षा पध्दति हो।
– डाँ. सुनील कुमार परीट
अच्छा लेख. हिंदी राजभाषा और राष्ट्रभाषा होने के कारण उसकी पढ़ाई कक्षा एक से ही शुरू की जनि चाहिए. अंग्रेजी की पढ़ाई कक्षा 6 से शुरू की जा सकती है. यह भी अनिवार्य नहीं होनी चाहिए. बल्कि तीसरी भाषा के रूप में होनी चाहिए.
अच्छा प्रशंसनीय लेख। हिंदी की उपेक्षा का कारण पाखंडी राजनेता एवं उदासीन एवं भोली जनता का होना है। हिंदी की उपेक्षा देश की एकता एवं अखंडता के लिए घातक है. लेखक का प्रयास सराहनीय।