राजनीति

क्या महात्मा गांधी सहिष्णु थे?

अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा का यह बयान “भारत में पिछले कुछ वर्षों में बढ़ती धार्मिक असहिष्णुता से गांधी जी आहत हुए होते” से कुछ तथाकथित बुद्धिजीविओं की जैसे लाटरी ही निकल गई। भूल स्मृत हो चुके गुजरात दंगों को अल्पसंख्यकों पर अत्याचार के नाम पर फिर से उछालने की कवायद फिर से तेज हो गई है मगर इस मानसिक कुश्ती में एक प्रश्न पर किसी का भी ध्यान नहीं गया की क्या महात्मा गांधी जी धार्मिक असहिष्णुता के प्रतीक है? 1947 के पश्चात के भारत में महात्मा गांधी के चिंतन पर शंका करना अपने आपको कट्टरवादी, दक्षिणपंथी कहलाने जैसा बन गया है क्यूंकि देश की सत्ता अधिकतर उन लोगों के हाथों में रही जिनकी राजनैतिक सोच महात्मा गांधी के विचारों का समर्थन करती थी। इस लेख का विषय महात्मा जी के विरुद्ध लेखन नहीं अपितु सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग है।
सत्यार्थ प्रकाश के विषय में वीर सावरकर ने कहा था – “महर्षि जी का लिखा अमर ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश हिंदी जाति की रगों में ऊष्ण रक्त का संचार करने वाला है। सत्यार्थ प्रकाश की विद्यमानता में कोई विधर्मी अपने मज़हब की शेखी नहीं मार सकता।”
महात्मा हंसराज ने कहा था-“यह पुस्तक आर्यसमाज का सुदर्शन चक्र है जिसके प्रहारों के आगे मतवादियों का ठहरना बड़ा ही कठिन है।”
किसी ने  सत्यार्थ प्रकाश को चौदह बार वाला पिस्तौल कहा तो अनेकों ने इसे पढ़कर आर्यसमाज के बनाये यज्ञकुण्ड में डालकर देश और समाज की सेवा की परन्तु गांधी जी के सत्यार्थ प्रकाश के विषय में विचार पढ़िये-
‘मेरे हृदय में स्वामी दयानंद के विषय में बड़ा मान है। मैं समझता हूँ की उन्होंने हिन्दू धर्म की बहुत सेवा की है.उनकी वीरता में संदेह करने की गुन्जाइश नहीं, परन्तु उन्होंने धर्म को संकुचित बना दिया है। मैंने आर्य समाजियों की बाइबिल “सत्यार्थ प्रकाश” को पढ़ा है। मैंने इतने बड़े सुधारक का ऐसा निराशाजनक ग्रन्थ आज तक नहीं पढ़ा—। स्वामी दयानंद ने सत्य और केवल सत्य पर खड़े होने का दावा किया है परन्तु उन्होंने अनजान में जैन धर्म, इस्लाम धर्म, ईसाइयत और स्वयं हिन्दू धर्म को अशुद्ध रूप में उपस्थित किया है। उन्होंने पृथ्वी तल पर अत्यंत सहिष्णु और स्वतंत्र सम्प्रदायों में से एक(हिंदी सम्प्रदाय) को संकुचित बनाने का प्रयास किया है। यद्यपि वे मूर्ति-पूजा के विरुद्ध थे परन्तु उन्होंने वेदों को मूर्ति बना दिया है और वेदों में विज्ञान प्रतिपादित प्रत्येक विद्या का होना प्रमाणित किया है। मेरी सम्मति में, आर्यसमाज ‘सत्यार्थ प्रकाश’ की उत्तमताओं से उन्नत नहीं हो रहा है, अपितु उसकी उन्नति का कारण उसके संस्थापक का विशुद्ध चरित्र है। आप जहाँ कहीं भी आर्यसमाजियों को पायेंगे, वहाँ जीवन और जागृति मिलेगी, परन्तु संकुचित विचार और लड़ाई झगड़े की आदत से वे अन्य सम्प्रदाय वालों से लड़ते रहते है और जहाँ ऐसा नहीं वहाँ आपस में स्वयं लड़ते रहते हैं।’
सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन के पश्चात भी मुसलमानों में कोई विशेष उत्तेजना नहीं फैली थी। परन्तु गांधी जी के यंग इंडिया के उपरोक्त लेख से मुसलमानों ने आर्यसमाज के विरुद्ध उपद्रव आरम्भ कर दिया जिसके कारण महाशय राजपाल का बलिदान हुआ। कालांतर में सिंध में 1944 से सत्यार्थ प्रकाश के पर प्रतिबन्ध लगाने का प्रयास किया गया जिसके विरुद्ध महात्मा नारायण स्वामी जी ने आंदोलन कर कराची जाकर सार्वजानिक रूप से सत्यार्थ प्रकाश का वितरण किया। महात्मा गांधी ने इस विषय पर कहा कि “सिंध सरकार ने अच्छा नहीं किया किन्तु मैं आर्यसमाजी भाइयों से आग्रह करता हूँ कि वे चौदहवें समुल्लास में संशोधन कर दे।”
अपने विचार रखने से पहले हम आर्य उपन्यासकार वैद् गुरुदत्त जी द्वारा लिखित उपन्यास पत्रलता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ लिखते है-
“कठिनाई यह है कि आप सदैव ही व्यक्ति को दृष्टि से देखते हैं। समाज का अस्तित्व आपकी दृष्टि में है ही नहीं। इसी कारण आपकी और हमारी विचारधारा भिन्न भिन्न दिशाओं में जाती है। किसी मृत व्यक्ति के कार्यों का ज्ञान इस कारण नहीं होता कि उससे उस व्यक्ति को लाभ अथवा हानि पहुँचा सकती है। इसमें लाभ यह होता है कि समाज के सामूहिक आचार विचार पर उस गुण दोष अन्वेषण का प्रभाव पड़ता है। मानव अपनी की गई भूलों को जानकर उससे बचता है और पहले किये गए उचित कर्मों के ज्ञान से, आगे उन्नत अवस्था तक पहुँचने का यत्न करता है।”
समीक्षा
जिस काल में सत्यार्थ प्रकाश लिखी गई उससे बहुत पहले, उस समय में भी और उसके पश्चात भी देश में भिन्न भिन्न सम्प्रदाय पैदा हो रहे है। यह सभी मत-सम्प्रदाय राष्ट्र के चरित्र बल को निर्बल बने रहे है, अन्धविश्वास फैला रहे है, मानव को धर्म के नाम पर भटका रहे है। जिससे धर्म बदनाम हो रहा है। ऐसे में सत्यार्थ प्रकाश के माध्यम से स्वामी जी ने मानव को दीर्घ काल तक ज्योति पाने का मार्ग दिखा दिया।
स्वामी दयानन्द जी के ही शब्दों में सत्यार्थ प्रकाश की रचना का उद्देश्य धार्मिक सहिष्णुता का प्रतिपादक नहीं तो और क्या है। स्वामी जी लिखते है-“इन सब मतवादियों, इनके चेलों और अन्य सबको परस्पर सत्यासत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम न हो इसलिए यह ग्रन्थ बनाया हैं। जो इसमें सत्य का मंडन और असत्य का खंडन किया हैं वह सबको बताना ही प्रयोजन समझा गया हैं। इसमें जैसी मेरी बुद्धि ,जितनी विद्या औ जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ हैं उसको सबके आगे निवेदन कर देना मैंने उत्तम समझा हैं क्यूंकि विज्ञान गुप्त हुए का पुन: मिलना सहज नहीं हैं। पक्ष पात छोड़कर इसको देखने से सत्यासत्य मत सबको विदित हो जायेगा। इस मेरे कर्म से यदि उपकार न मानें तो विरोध भी न करें क्यूंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि या विरोध करने में नहीं किन्तु सत्यासत्य का निर्णय करने कराने का हैं। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्याय दृष्टी से जतना अति उचित हैं। मनुष्य जन्म का होना सत्य असत्य का निर्णय करने कराने के लिए हैं। इसी मत मतान्तर के विवाद से जगत में जो जो अनिष्ट फल हुए , होते हैं और होंगे उनको पक्ष पात रहित विद्वतजन जान सकते हैं। जब तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मत मतान्तर का विरुद्ध वाद न छुटेगा तब तक अन्याय न्याय का आनंद न होगा। सन्दर्भ- सत्यार्थ प्रकाश अनुभुमिका 1”
12 वें समुल्लास की भुमिका में स्वामी दयानंद जी लिखते हैं “इसमें जैनी लोगों को बुरा न मानना चाहिए क्यूंकि जो जो हमने इनके मत विषय में लिखा हैं वह केवल सत्यासत्य के निर्णयार्थ हैं न की विरोध या हानि करने के अर्थ। सन्दर्भ अनुभुमिका 2”
13 वें समुल्लास की भुमिका में स्वामी दयानंद जी लिखते हैं “यह लेख केवल सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास होने के लिए लिखे हैं न की किसी को दुःख देने व हानी करने व मिथ्या दोष लगाने के अर्थ।” सन्दर्भ अनुभुमिका 3
इन सन्दर्भों से यह सिद्ध होता है की सत्यार्थ प्रकाश की रचना का उद्देश्य सम्पूर्ण मानव जाति का कल्याण था ना फिर क्या सत्यार्थ प्रकाश को आर्यसमाजियों की बाइबिल लिखकर क्या महात्मा गाँधी ने उसे संकीर्ण नहीं बना दिया?
जिस स्वामी दयानंद ने समाधी की ब्रहानन्द का त्यागकर अपने प्राणों की आहुति वैदिक धर्म के प्रचार्थ एवं हिन्दू जाति की महान सेवा में दी गई उन पर हिन्दू धर्म को संकुचित करने का आरोप लगाकर महात्मा गाँधी अपने कौनसे सिद्धांत को सार्वभौमिक सिद्ध करने का प्रयास कर रहे थे?
महात्मा गांधी अपनी प्रार्थना सभाओं में रामभजन के पश्चात गीता, गुरुग्रंथ साहिब एवं क़ुरान की आयतें भी होती थी। सत्यार्थ प्रकाश के 14 वें समुल्लास में संशोधन करने की राय देने वाले गाँधी जी ने कभी क़ुरान में उन आयतों का संशोधन करने की सलाह मुसलमानों को कभी क्यों नहीं दी जिनमें गैर मुसलमानों को काफिर और उनकी बहु बेटियों को लुटने की बातें खुदा के नाम से लिखी गई है?
वेदों में विज्ञान पर टिप्पणी करने से पहले महात्मा गाँधी ने कभी इस्लाम में प्रचारित चमत्कारों जैसे उड़ने वाले बुराक गधे और चाँद के दो टुकड़े होने जैसी मान्यताओं पर कभी अविश्वास दिखाने की कभी हिम्मत न कर सके । इतनी निर्भीकता गाँधी जी में नहीं थी।
भाई परमानन्द जब साउथ अफ्रीका गए तो महात्मा गाँधी जी से मिले थे। गाँधी जी ने भाई जी से कोई अप्रतिम उपहार देने का आग्रह किया। भाई जी ने गाँधी जी को सत्यार्थ प्रकाश भेंट किया तो गांधी जी ने कहा की ऐसी अनुपम कृति का लेखन एक आदित्य ब्रह्मचारी के द्वारा ही संभव है। उन्हीं महात्मा गाँधी के विचार कालांतर में परिवर्तित हो जाते है एवं वे मुसलमानों की नैतिक-अनैतिक सभी मांगों को मानते हुए  इतना खो जाते थे की उन्हें यह आभास भी नहीं हो पाता था की वे कब सहिष्णु के बदले असहिष्णु विचारों का समर्थन कर रहे है।
                     अगर सत्य शब्दों में कोई मुझसे पूछेगा की आप आधुनिक इतिहास में किनके विचारों को सबसे अधिक सहिष्णु मानते है तो मेरा उत्तर एक हो होगा- “मेरा देव दयालु दयानंद”

 

One thought on “क्या महात्मा गांधी सहिष्णु थे?

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छा लेख .

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