वर्तमान आतंक पर दुःख के शब्द –
हाय ! मेरी धरा
अधमरी करने-
मौत से पहले तुम
दिन रात मरने ,
लाश लाश !!
मेरे भी
तेरे भी
अपनों के
पास पास ।।
ए बिलबिलाहट
सुबकना सिसकना
जिन्दगी को
मौत बेचना ,,
चूल्हा चौका
ख़ाक
जिस्म राख़ राख़
क्यों ?
आख़िर इसका मकशद
बेगैर मातम मौत है
जो यूँ
बेसबब बारिशों में
भर रहे हो ख़ूनी रंग
हैवानों
शर्मशार है हैवानियत –
बच्चों का कत्ल !!!!
काली जंग ।।
अल्हा !
मिट चुके हैं
मिटते जा रहे हैं
हैवान ,
कत्लेआम में
पाक ए जिस्म अल्हा पे
लहू बच्चों का
छिटकते जा रहे हैं ।।
आज ,
काले से उजाले
लिबासे मौत में ,
अल्हा और मुझे
दोनों को सम्भाले
कर बेहोश
लाचार बेबस
हमें ,
रंग ख़ून से ताबूत
अम्मा के होश ए मौत में
हैं दफ़न करने जा रहे ,
औ जिल्ते तवायफ़
भी हमें ,
है महशुस अब
जो कत्ल के ख़ुतबे में पढ़
नाम हमारा
बेकफ़न करने जा रहे ।।
कोई है ?
रोकेगा इन्हें !!
च्चुपियों की सौगात में,
मौत यह तौफ़े में हमें ।
ख़ाक कहते हो
क्या गुजरी बात कहते हो
उबलते रहे होंगे
लहू इन जिन्दा लाशो की रगों के
देख इनको
शक इस मौके पर हमें ।।
उठो –
जगो-
प्रलय करो ।
मुझे मुक्ति दो
हैवान की कैद से
ख़ुदा को मुक्ति दो
आतंक विहीन भोर में
नव उदय की सूक्ति से
श्रृष्टि को
एक नई सी उक्ति दो ।।
— सौरभ
बहुत अच्छी कविता है, शाएद यह सन्देश किसी के कानों तक पौहंच पाए !