अंजुरी भर सपने
पोल के नीचे अक्सर
वह दिखती
पुरानी किताबों के कुछ पन्ने
कुछ जोड़ तोड़ कर
टूटे फूटे शब्द बोल बोल कर
पढ़ने की कोशिश करती
वह बड़ी अफसर बनना चाहती थी
चुपके चुपके देखती
अपने अधूरे रंगहीन सपने
जिसे पूरा करना शायद
उसके बस मे नहीं था
फिर भी सपने देखती , हसरत थी
विश्वास था ,पूरा करने का
छोटे छोटे हाथों मे काम बड़े थे
वह रोज माँ के काम मे हाथ बंटाती
नन्हें हाथों से बर्तन माँजती
छोटी सी गोदी मे भैया को खिलाती
फिर भी उन टुकड़ों को पढ़ना नहीं भूलती
उसके आस पास सीलन भरी ज़िंदगी थी
पर हाथों मे खुशबूदार सपने थे
वह जीतना चाहती थी
अपनी उम्र से ज्यादा उसके सपने थे
विद्यालय का द्वार
उसके लिए नहीं था
वह बाहर खड़ी होकर देखती
रंग बिरंगे कपड़ों मे
दौड़ते खिलखिलाते बच्चे
और हसरत लिए लौट आती
नियति के आगे सिर झुका
वापस अपनी दुनिया मे
छोटे हाथ बड़े हो गए
काम बड़े हो गए
टोकरी उठाने लायक
परिवार का पालन पोषण करने लायक
उसके पन्ने अब उससे दूर हो गए
अब वो कभी नहीं पढ़ती
कहीं गुम हो गए उसके
अंजुरी भर सपने !!!!