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सत्यार्थप्रकाश के आर्य्यावर्त्तीय मतों के खण्डनमण्डन समुल्लास की महर्षि दयानन्द लिखित महत्वपूर्ण अनुभूमिका

​महर्षि दयानन्द सरस्वती ने सन् 1875 में आर्य समाज की स्थापना की थी। उन्होंने अपनी वेदों पर आधारित मान्यताओं व सिद्धान्तों का बोधक ग्रन्थ “सत्यार्थ प्रकाश” लिखा है जो विश्व साहित्य में अविद्वतीय है। यह एक प्रकार से विश्व में शान्ति का संविधान है। इस ग्रन्थ के 11वें अध्याय की अनुभूमिका में लिखे गये शब्दों, प्रासंगिक एवं महत्वपूर्ण होने के कारण, ज्ञानार्थ व विचारार्थ प्रस्तुत कर रहें हैं। ​

महर्षि दयानन्द लिखते हैं – ‘‘यह सिद्ध बात है कि (सन् 1875 से) पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेदमत से भिन्न दूसरा कोई भी मत (संसार में) न था, क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरूद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत युद्ध हुआ। इनकी अप्रवृत्ति से अविद्याऽन्धकार के (कारण) भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया, वैसा मत चलाया।

​उन सब मतों में 4 चार मत अर्थात् वे क्रम से एक के पीछे दूसरा, तीसरा व चैथा चला है। अब इन चारों की शाखा एक सहस्र से कम नहीं हैं। इन सब मतवादियों, इनके चेलों और अन्य सबको परस्पर सत्याऽसत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम न हो, इसलिये यह (सत्यार्थ प्रकाश) ग्रन्थ बनाया है। जो-जो इसमें सत्य-मत का मण्डन और असत्य का खण्डन लिखा है, वह सबको जनाना ही प्रयोजन समझा गया है। इसमें जैसे मेरी बुद्धि, जितनी विद्या और जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ है, उसको सबके आगे निवेदन कर देना मैंने उत्तम समझा है, क्योंकि विज्ञान गुप्त (लुप्त व नष्ट) हुए का पुनर्मिलना सहज नहीं है। पक्षपात छोड़कर इसकेा देखने से सत्याऽसत्य मत सबको विदित हो जायगा। पश्चात् सबको अपनी-अपनी समझ के अनुसार सत्य मत का ग्रहण करना और असत्य मत को छोड़ना सहज होगा। इनमें से जो पुराणादि ग्रन्थों से शाखा-शाखान्तररुप मत आर्य्यावर्त्त देश में चले हैं, उनका संक्षेप से गुण-दोष इस (सत्यार्थ प्रकाश के) 11वें समुल्लास में दिखाया जाता है।

​इस मेरे कर्म से यदि उपकार न माने तो विरोध भी न करें। क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्याऽसत्य का निर्णय करने-कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य-जन्म का होना सत्याऽसत्य के निर्णय करने-कराने के लिये है, न कि वादविवाद, विरोध करने-कराने के लिये।

​इसी मतमतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और होंगे, उनको पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब-तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्धवाद न छूटेगा तब तक अन्योऽअन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईष्याद्वेष छोड़ सत्याऽसत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना-कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है।

​यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ही ने सबको विरोधजाल में फंसा रक्खा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फंसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इसके होने की युक्ति (स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश शीर्षक से) इस ग्रन्थ की पूर्ति में लिखेंगे। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाशित करे। (अलमतिविस्तरेण विपश्चिद्वरशिरोमणिशु)”

​महर्षि दयानन्द द्वारा 11हवें समुल्लास में ही भारत के प्रति गौरवगान करते हुए निम्न स्वर्णिम-महत्वपूर्ण वाक्य भी लिखे गये हैं-

​“‘यह आर्य्यावर्त्त देश ऐसा है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है। इसीलिये इस भूमि का नाम सुवर्णभूमि है क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिये सृष्टि की आदि में आय्र्य लोग इसी देश में आकर बसे। इसलिये हम सृष्टि विषय (सत्यार्थ प्रकाश का आठवां समुल्लास) में कह आये हैं कि आर्य नाम उत्तम पुरूषों का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम दस्यु है। जितने भूगोल में देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और आशा रखते हैं। पारसमणि पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है, परन्तु आर्य्यावर्त्त देश ही सच्चा पारसमणी है कि जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही सुवर्ण; अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।“

​हम आशा करते हैं कि पाठक महर्षि दयानन्द के इन निष्पक्ष एवं उपादेय विचारों को पसन्द करेंगे।

-मनमोहन कुमार आर्य