गीत – जिनको बसंत में था खिलना
जेठ माह में खिले कुसुम वो
जिनको बसंत में था खिलना
रूप कुदरती नहीं आ सका
है सुगंध में अनजानापन
चहल-पहल भ्रमरों की कम है
लगे तितलियाँ आतीं बेमन
असल खुशी देता है सबको
नियत वक्तपर ही कुछ मिलना
अभी कहाँ गीतों का गायन
कहाँ प्रणय की बेला मधुरिम
है उमंग भी बुझी-बुझी सी
अगन हृदय की लगती मद्धिम
नहीं मनोरम नृत्य लगे अब
देख पवन पेड़ों का हिलना
नहीं उमड़ पाया स्वागत में
यौवन का झोंका मदमाता
कवियों की भी कलम रुकी है
है श्रृंगार पड़ा अलसाता
बनी परिस्थितियाँ कुछ ऐसी
पड़ा विवश अधरों को सिलना