लम्हे भर का इश्क
रेजा रेजा बिखरती कतरा कतरा
दुःस्वप्नों के भंवर में फंसती
बिस्तर की सिलवटों में रेंगते अजगर
कटेगी कैसे जिन्दगी
कि जब भी तेरे नाम के मनके गिनती
हमेशा कम पड़ जाते हैं
हिचकियों ने भी तो
कर दिये हैं बंद खत पहुंचाने
तुम्हें भान भी है कि इतनी दूर
मैं याद कर रही हूं तुमको
तुम्हारे आने का वादा तो कब का
डिबरी की बत्ती में राख हुआ
लम्हे भर को आग चमकी थी
जैसे इश्क हुआ था तुमको
कभी सोचती हूं
कह दूं तुमसे वो सारी बातें
नहीं देतीं जो मुझे जीने
बता भला
लम्हे भर को इश्क होता भी है क्या?
— रितु शर्मा