एक अकेला आदमी
घुप्प अकेले अंधेरे कमरे मेँ
वीरानगी छा जाती है
जब कोई हो अकेला
नितांत अकेला . . .
यह दुनिया,ये रिश्ते नाते
सब बेमानी लगते हैँ
जब इंसान होता है अकेला . . .
खुद से बातेँ करते करते
टूट जाता है एक दिन
ठुँठ पेड़ के
टुटे शाख के मानिंद
अपने इर्द गिर्द
बुन लेता है
अपनी ही यादोँ के जाले
जिसमेँ फँस कर वह
छटपटाता है एक दिन
आखिर
कहे भी तो किससे
कि दम घुटता है मेरा . . .
सिगरेट के धुओँ मेँ
तब्दील होती जाती है
उसकी उम्मीदेँ
उसने आस छोड़ दी है
किसी के साथ की
जब वह किसी से
जुदा होता है . . .
— सीमा संगसार
सीमा जी , कविता बहुत अच्छी लगी , निराशा में इंसान ऐसा ही सोचने लगता है.