कहानी

किराये का खोल

बात उन दिनों की है.. ………….जब मेरे पति अकसर काम के सिलसिले में बाहर रहते थे.बेटे को स्कूल के लिये बस स्टाप पे छोड़ना ……….और लाना मेरी ही जिम्मेदारी थी…..घर से स्टाप पहुँचने मैं……. करीब २० मिनिट का वक्त लगता था .

…….रोज की तरह उस दिन भी मैं…. उसको लेने के लिये घर से निकली ………ठंड के दिन थे .हाँलाकि इस बात को …..१५ बरस बीत चुके है…… ….पर आज भी मुझे अच्छे से याद है .मैने ब्लू कलर की फ़्लावर प्रिंटेड साड़ी पहन रखी थी …..बाल लम्बे होने के कारण …..कमर से नीचे आते थे …..पर उस दिन गीले थे तो बाँधे नहीं खुले ही छोड़ दिये ….मैं घर से निकली और एक मोड़ ही मुडा होगा ….देखा पीछे से
एक शख्स और आ रहा है …

मुझे थोडा सा डर लगा रास्ता एकदम सुनसान  था……. ….नई काँलोनी और शहर से दूर होने  के कारण गाडियों की आवाजाही भी कम रहती थी ………..और वेसे भी काँलोनी मैं किसी को किसी से मतलब नहीं रहता …….सब अपने-अपने दरवाजे बन्द ही रखते ……. मैं थोडा तेज-तेज चलने लगी ……….उसने मुझे आवाज लगाई भाभीजी आप कहाँ जा रही हैं …….मैंने उसे जबाब नहीं दिया डर के कारण मैंने उसकी आवाज को अनसुना कर दिया ………पर जब उसने मेरे पति का नाम लिया ……और अपना परिचय दिया और बताया कि वो मेरे………ससुराल वालों से परिचित है ..तो मैं कुछ रुकी और उसके प्रति सम्मान व्यक्त कर मैं उससे बातें करने लगी …..२० मिनिट का रास्ता तय करने मैं लगा जैसे ५० मिनिट लग गये हों ………वो इधर -उधर की ढ़ेर सी बातें करता रहा ……….. उसका बात करने का लहजा बहुत ही सौम्य था ……….जैसे मंत्र-मुग्ध ….कर दिया हो उसने मुझे बडी तल्लीनता से सुन रही थी मैं उसे और हाँ मैं सिर हिलाती जा रही थी………. .बस स्टाँप कुछ ही दूरी पर था …….बेटे की बस अभी आई नहीं थी …  मैंने उससे विदा लेने के लिये जैसे ही मुडी तो वहाँ कोई नहीं था …..मैं हतप्रभ रह गयी ……फिर भी मन नहीं माना मैंने इधर-उधर देखा कि वो आस-पास कहीं हो……पर दूर-दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था ….मैं डर से बुरी तरह काँप रही थी ……….क्योंकि इतनी देर से मैं उस व्यक्ति से बात करते आ रही थी……….ऐसे अचानक वो कहाँ
गायब हो गया ……मेरी हालत तो काटो तो खून नहीं जैसी हो गयी….

कुछ पल रुक मैंने खुद को संभाला और मन ही मन हनुमान चालीसा बोलने . लगी डर भगाने के लिये ……..सहसा मुझे रविन्द्र नाथ टेगोर जी की कहानी “पिंजर” का स्मरण हो आया …कि शरीर त्यागने के बाद भी आत्मायें अपने पिंजर को देखने के लिये आती है …………..पूरा जीवन वो जिस खोल(शरीर) मैं गुजारती हैं तो लगाव तो स्वाभाविक है …..मैने सोचा ….शायद ये भी अपने पिंजर को तलाशने आई कोई आत्मा ही है………….शायद इसका पिंजर भी किसी अस्पताल मैं मेडिकल स्टुडेंटस की स्टडी लीये रखा हो ……..

फिर मैं सोचने के लिये विवश हो गयी …..कि जिस शरीर और रूप रंग पर हम इतना गुमाँन ……..
करते हैं.. वो तो हमारा है ही नहीं जब तक ईशवर की दी साँसे हैं.. ..तब तक ये रूप रंग ये शरीर (किराये का खोल ) हमारा है ..जिस दिन उसने बुलाया सब यहीं छूट जाना है.

मैं अपनी सुध-बुध खोये सोचे जा रही थी ……..उससे हुई मुलाकात के बारे मैं . बेटे की बस आ गई थी…………. उसने माँ कह मुझे पुकारा मेरी तन्द्रा भंग हो गयी ……… पर कुछ वक्त की मुलाकात ने जीवन का सबसे बडा पाठ पढा दिया।

— राधा श्रोत्रिय “आशा”

राधा श्रोत्रिय 'आशा'

जन्म स्थान - ग्वालियर शिक्षा - एम.ए.राजनीती शास्त्र, एम.फिल -राजनीती शास्त्र जिवाजी विश्वविध्यालय ग्वालियर निवास स्थान - आ १५- अंकित परिसर,राजहर्ष कोलोनी, कटियार मार्केट,कोलार रोड भोपाल मोबाइल नो. ७८७९२६०६१२ सर्वप्रथमप्रकाशित रचना..रिश्तों की डोर (चलते-चलते) । स्त्री, धूप का टुकडा , दैनिक जनपथ हरियाणा । ..प्रेम -पत्र.-दैनिक अवध लखनऊ । "माँ" - साहित्य समीर दस्तक वार्षिकांक। जन संवेदना पत्रिका हैवानियत का खेल,आशियाना, करुनावती साहित्य धारा ,में प्रकाशित कविता - नया सबेरा. मेघ तुम कब आओगे,इंतजार. तीसरी जंग,साप्ताहिक । १५ जून से नवसंचार समाचार .कॉम. में नियमित । "आगमन साहित्यिक एवं सांस्कृतिक समूह " भोपाल के तत्वावधान में साहित्यिक चर्चा कार्यक्रम में कविता पाठ " नज़रों की ओस," "एक नारी की सीमा रेखा"

One thought on “किराये का खोल

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    जो इस संसार में आया है उस ने एक दिन अवश्य जाना ही है , यह सब को पता है लेकिन हम मानने के लिए तैयार नहीं होते. हम मिआं बीवी ने तो अपने फ़िऊन्रल के लिए भी विवस्था पहले से कि हुई है , हम समझते है हर दिन आया एक बोनस है .

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