विश्वगुरू दयानन्द की गुजरात स्थित जन्मभूमि टंकारा की यात्रा
यात्रा में सोमनाथ मन्दिर, द्वारका एवं गांधी जन्मगृह, पोरबन्दर के भी दर्शन
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द सरस्वती का जन्म गुजरात में मोरवी जिले के टंकारा नामक कस्बे में 12 फरवरी, सन् 1825 को हुआ था। स्वामी दयानन्द ने अपने जीवन काल में अपने जन्म स्थान का पूरा विवरण अपने अनुयायियों को अवगत नहीं कराया। इसका कारण उन्होंने यह बताया था कि यदि वह अपने जन्म स्थान का नाम, जन्म तिथि व माता-पिता के नाम आदि बता देंगे तो, उनके जीवित होने पर, हो सकता है कि उन्हें उनका विवरण ज्ञात हो जाये और पुत्र मोह के कारण वह उनके पास पहुंच कर उन्हें अपने साथ घर लौटने का आग्रह करें। यदि ऐसा हुआ होता तो देश व विश्व के कल्याण का जो कार्य कर रहे थे, वह बाधित हो जाता। इस कारण उन्होंने अपने जीवन काल में कभी किसी को अपने जन्म स्थान व अन्य विवरण सूचित नहीं किये। उन्होंने संकेत मात्र में इतना ही कहा था कि गुर्जर प्रदेश के मोरवी राज्य में उनका जन्म एक ब्राह्मण कुल में हुआ था, पिताजी कट्टर शिवभक्त थे, उनके एक चचा थे जो उनसे अत्यधिक स्नेह करते थे, एक बहिन थी जिसकी हैजे से मृत्यु हो गई थी आदिे। महर्षि दयानन्द का सही जन्म स्थान व माता-पिता के नाम आदि की खोज उनके बंगाल निवासी एक धर्मानुरागी अनुयायी श्री देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय ने अपना सारा जीवन उनके जीवन की घटनाओं की खोज करके व एक विशालकाय जीवन-चरित्र की सामग्री की खोज व विवेचन कर छोड़ गये। उन्होंने केवल ग्रन्थ की भूमिका व प्रथम अध्याय ही लिखा था और पक्षाघात आदि के कारण मृत्यु को प्राप्त हुए थे। उन्होंने अपनी सारी पूंजी खर्च करके व सारे देश का भ्रमण कर महर्षि दयानन्द के जीवन की सामग्री की खोज की। यद्यपि वह आर्य समाजी नहीं बने तथापि वह सच्चे आर्य थे और सारा आर्य जगत सदा-सदा के लिए उनका ऋणी व कृतज्ञ है।
महर्षि दयानन्द जन्मभूमि टंकारा में एक श्रीमद्दयानन्द स्मारक न्यास नामक एक स्मारक स्थापित है जहां प्रत्येक वर्ष शिवरात्रि के ही दिन ‘ऋषि बोधोत्सव’पर्व आयोजित किया जाता है। महर्षि दयानन्द को चैदहवें वर्ष के आरम्भ में शिवरात्रि के दिन शिवलिंग व चूहे की घटना से सच्चे शिव को जानने का बोध व प्रेरणा प्राप्त हुई थी। इसके लिए उन्होंने 21 वर्ष की आयु में माता-पिता-कुटुम्बीजनों व गृह त्याग कर योगियों की संगति की, उनसे योगाभ्यास की शिक्षा प्राप्त की, धार्मिक विद्वानों की संगति कर उनसे ईश्वर व जीवात्मा संबंधी ज्ञान ग्रहण किया, शास्त्राध्ययन से अभीष्ट की प्राप्ति का कार्य किया, देशाटन कर देश की स्थिति व इतिहास को जाना तथा सन् 1857 की स्वतन्प्तत्रता क्रान्ति को निकट से देखा व उसमें सक्रिय भाग लिया। वह अपने मिशन में सफल हुए और गुरू की प्रेरणा व आज्ञा से उन्होंने अपना जीवन सत्य के प्रचार व असत्य के त्याग तथा सत्य के ग्रहण करने-कराने व असत्य को छोड़ने व छुड़वाने में व्यतीत किया। इसका परिणाम ही आर्य समाज की स्थापना, अवैदिक मान्यताओं, कुप्रथाओं, शास्त्रार्थ, शंका-समाधान, प्रवचन व उपदेश, सत्यार्थप्रकाश-ग्वेदादिभाष्यभूमिका- सन्ध्योपासना-आर्याभिविनय आदि ग्रन्थों की रचना तथा देशाटन-भ्रमण-वेदप्रचार आदि कार्य थे। उनके द्वारा किया गया कार्य मानवता के इतिहास में अपूर्व व अत्युत्तम है। उन्होंने मनुष्य जीवन के उद्देश्य व उसकी पूर्ति के उपाय की पहेली को न केवल हल ही किया अपितु अपने जीवन के उदाहरण से उसमें कृतकार्य व सफल होकर भी दिखाया। उनसे पूर्व उनके समान कार्य किसी महापुरूष ने नहीं किया, ऐसा हमारे विगत 45 वर्षों के अध्ययन का परिणाम है। वह न केवल आर्य समाज के अनुयायियों अपितु हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई एवं अन्य सभी समुदायों द्वारा सत्कार व पूजा के योग्य हैं क्योंकि उनका उद्देश्य मानवमात्र किंवा प्राणीमात्र का हित सम्पादन करना था जो कि उन्होंने किया और सफल हुए।
प्रत्येक वर्ष टंकारा-गुजरात के ऋषि-जन्मभूमि न्यास द्वारा स्थापित आश्रम में ‘ऋषि बोधोत्सव’ का पर्व उत्साह व धर्म भावना से भरे हुए उनके अनुयायियों द्वारा श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। देश-विदेश के उनके अनुयायी इस अवसर पर वहां पहुंच कर उन्हें अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते है। इसी भावना से 16 से 18 फरवरी, 2015 को आयोजित कार्यक्रम में हम भी अपने मित्र श्री कृष्णकान्त वैदिकशास्त्री-श्रीमति इरारानी, श्री ललितकृष्ण अग्रवाल-श्रीमति राजरानी तथा अपनी धर्मपत्नी श्रीमति निर्मला सहित सम्मिलित हुए। इससे पूर्व विगत 10 वर्षों में 2 बार अन्य मित्रों के साथ जाने का अवसर भी हमें मिला है जहां पहुंच कर मन में उठने वाली ऋषि भूमि के दर्शन की हमारी इच्छा पूरी हुई। यहां आयोजित कार्यक्रम का मुख्य आकर्षण तो यहां निर्मित भव्य व विशाल यज्ञशाला में किया जाने वाला वेद पारायण यज्ञ होता है जिसे यहां के आचार्य रामदेव जी आदि व यहां संचालित वैदिक गुरूकुल के ब्रह्मचारीगण मिलकर वेद मन्त्रोच्चार से करते हैं। यज्ञशाला में सहस्रों दयानन्द-भक्तों को कृतज्ञताभाव से बैठे हुए आत्म-सन्तोष व तृप्ति की अनुभूति होती है। यहां का दूसरा आकर्षण यहां पूरे गांव में सभी श्रद्धालुओं द्वारा निकाली जाने वाली शोभा यात्रा है जो गांव के एक सिरे ‘आर्य समाज टंकारा’ से आरम्भ होकर अन्तिम कोने में स्थित न्यास के आश्रम स्थल तक जाती है। हमने पहले भी व इस बार भी अनुभव किया कि वहां का सारा वातवारण दयानन्दमय हो जाता है। अनेक लोग सुध-बुध खोकर दयानन्द के कार्यो की महिमा का गान करते हुए गीत गाते हैं। आयोजन का तीसरा आकर्षण यज्ञशाला के साथ के स्थान में निर्मित पण्डाल में होता है जिसमें भजन-प्रवचन-नृत्य-नाटिकायें-ब्रह्मचारियों के वीरता के कृत्य व किसी राजनेता के सान्निध्य में महर्षि दयानन्द के कार्यों, उद्देश्यों का प्रभावशाली प्रस्तुतिकरण व उनके देश व समाज पर मनोवैज्ञानिक व शैक्षिक, समाज-सुधारात्मक कार्यों के प्रभाव से सम्बन्धित होता है। इस दृष्टि से इस बार का कार्यक्रम सफल कहा जाता सकता है। सभी आगन्तुकों के लिए निवास व भोजन की व्यवस्था की जाती है। भोजन की व्यवस्था सराहनीय होती है जिसमें न्यास को आर्यसमाज-भुज के सदस्यों का उल्लेखनीय सहयोग प्राप्त होता है। ऋषि-भक्तों के निवास की व्यवस्था को और सुखद बनाने के प्रयासों की अपेक्षा है। पुस्तक व अन्यान्य प्रकार की उपयोगी सामग्री के विक्रेता भी यहां अपने स्टाल लगाते हैं। इस सब का लाभ व आनन्द यहां हमने अपने 2 दिवसीय प्रवास में रहकर उठाया।
टंकारा पहुंचने के लिए हमने देहरादून से 14 फरवरी, 15 को हरिद्वार तक की सड़क गार्ग से यात्रा की। यहां से रेलमार्ग से हम 15 फरवरी को सायं 4 बजे अहमदाबाद पहुंचे। यहां रात्रि में होटल में निवास कर हम टैक्सी से प्रातः 6 बजे चलकर लगभग 12 बजे टंकारा पहुंचे। 18 फरवरी को हमने टंकारा से ऐतिहासिक सोमनाथ मन्दिर की। इस बार हमने सोमनाथ मन्दिर न्यास द्वारा संचालित अतिथि निवास गृह – महेश्वरी अतिथि-गृह में निवास किया। यहां निवास का बहुत अच्छा प्रबन्ध है। कम मूल्य पर अच्छे होटलों से भी अधिक सुविधाजनक व्यवस्था यहां है। मन्दिर के निकट ही स्थित यह अतिथि-गृह पर्यटकों के लिए अत्यन्त सुविधाजनक है। यहां पहुंच कर हम सोमनाथ मन्दिर के साथ के समुद्र तट पर भ्रमणार्थ गये मन्दिर जहां पर्यटकों की बहुत भीड़ रहती है। लोग समुद्र के जल में खड़े होकर तथा ऊंट की यात्रा कर सुखद अनुभूति करते हैं। यहां एक बाजार भी है जहां लोग कुछ खरीददारी करते हैं। इसके बाद हम सोमनाथ मन्दिर में गये, वहां आरती का दृश्य देखा। हमने अनुभव किया कि हमारे पाराणिक मूर्तिपूजक बन्धुओं में ईश्वर व धर्म के प्रति गहरी आस्था के साथ अन्धविश्वास भी बहुत हैं। वह आज भी ईश्वर की सच्ची पूजा किस प्रकार होती है व की जानी चाहिये, इससे अपरिचित हैं। वेद और योगदर्शन की शिक्षाओं व मान्यताओं से सभी अनभिज्ञ हैं। काश, कि हमारे यह भाई ईश्वर की सच्ची पूजा पद्धति को जानकर उसका अनुगमन व आचरण कर पायें, तो कितना अच्छा हो? वह दिन स्वर्णिम दिन होगा जब हमारी धरती पर अन्धविश्वास दूर होकर ईश्वर के प्रति सच्चा विश्वास प्रत्येक मनुष्य के हृदय में वास करेगा। यह कभी हो सकेगा या नहीं, कहा नहीं जा सकता? महर्षि दयानन्द ने इस कार्य के लिए अपने जीवन का एक-एक क्षण ालगाया, 18 बार विष पीकर अपना बलिदान किया, परन्तु हम अनुभव करते हैं कि सभी मत-मतान्तरों किंवा धर्मों में अन्धविश्वास कम होने के स्थान पर बढ़ते ही जा रहें हैं। ईश्वर को इसे दूर करने के लिए स्वयं ही कुछ करना होगा। ईश्वर सर्वशक्तिमान हैं, क्या वह अन्धविश्वासों व पाखण्डों के निवारण में कुछ ठोस उपाय करेंगे अथवा मनुष्यों को उनके द्वारा प्रदत्त स्वतन्त्रता के अधिकार में बाधक न बनकर मूक साक्षी बनकर उनके अच्छे व बुरे कर्मों का फल ही प्रदान करते रहेंगे? सोमनाथ मन्दिर में रात्रि 7-30 बजे से 1 घंटे का लाइट एवं साउण्ड सो होता है। यह भी दर्शनीय व श्रवणीय है। हमने इसका भी आनन्द लिया और इस कार्यक्रम से सोमनाथ मन्दिर के इतिहास व इसके निर्माण की पृष्ठभूमि की हमारी जानकारी में वृद्धि हुई। वर्तमान का सोमनाथ मन्दिर भारत के लौहपुरूष आदरणीय सरदार वल्लभ भाई पटेल जी के महान जीवन का एक बहुमूल्य कार्य है। यह मन्दिर इतना भव्य व विशाल है कि इसकी सुन्दरता को निहारते हुए इसके मास्टर माइण्ड अभियन्ता, स्वप्नद्रष्टा व इसके सभी कारीगरों के प्रति प्रत्येक श्रद्धालु का माथा श्रद्धा से झुक जाता है। हम भी सरदार पटेल, राष्ट्रपति राजेन्द्र प्रसाद, श्री क.एम. मुंशी व इसके समस्त कारीगरों को भी हृदय से प्रणाम करते हैं। हमारी हिन्दू जाति से भी अपेक्षा है कि इसकी सुरक्षा के पुख्ता इन्तजाम होने चाहियें जिससे अतीत में घटी घटना व उसके समान किसी अन्य घटना की पुनरावृत्ति न हो।
सोमनाथ मन्दिर के अतिथि गृह वा धर्मशाला में रात्रि निवास कर हम 19 फरवरी की प्रातः योगेश्वर भगवान श्री कृष्ण की कर्म नगरी द्वारका के लिए सड़क मार्ग से चालक श्री महेन्द्र सिंह के साथ चले। पोरबन्दर होते हुए लगभग 300 किमीं की यात्रा कर हम दिन के 1 बजे द्वारका पहुंच गये। रास्ते में श्री धीरूभाई अम्बानी से जुड़े हुए उनके निवास स्थान आदि भी हमारे सम्मुख दृष्टिगोचर हुए। द्वारका में भोजन कर हम बेट द्वारका पहुंचे जो द्वारका से लगभग 40 किमी. दूरी पर है। यह स्थान चारों ओर से समुद्र से घिरे एक टापू पर हैं जहां लगभग 8 हजार मनुष्य निवास करते हैं जिसमें हिन्दू व मुस्लिम दोनों समुदाय के लोग हैं। ओखा रेलवे स्टेशन के निकट स्थित बेट द्वारका के निकटवर्ती समुद्र तट पर पहुंच कर हम नाव द्वारा वहां पहुंचें। मन्दिर और इस टापू पर स्थित बाजार में घूमे। यहां भी हमें सच्चे अध्यात्मिक पुरुषों के दर्शन नहीं हुए जिनकी सगंति की हमें अपेक्षा रहती है। यहां की विशेष बात यह थी कि समुद्र में कबूतर से मिलते-जुलते पक्षी बड़ी संख्या में रहते हैं। जो पानी पर बैठकर तैर सकते हैं। जब नावं चलती है तो यह उड़ कर उसके ऊपर मंडराने लगते हैं। नाव में लगभग 200 लोग सवार होते हैं। कुछ लोग बिस्कुट या आटे की गोलियां आदि पदार्थ पक्षियों की ओर ऊपर को उछालते हैं जिन्हें यह अपनी चोंच में पकड़ लेते हैं। इनकी संख्या भी लगभग एक सौ होती है। कभी किसी के द्वारा उछाला गया पदार्थ नीचे नहीं गिरता, इस कार्य में इन पक्षियों की प्रवीणता देखकर आश्चर्य होता है। यह इनके अभयास एवं ईश्वर प्रदत्त स्वाभाविक ज्ञान का परिणाम है। यह दृश्य नाविक व यात्रियों को रोमांचित कर देता है। हमें तो बेट-द्वारका की यात्रा में सबसे अधिक प्रिय व मनोरंजक यही दृश्य लगा। वापस द्वारका लौटते हुए कुछ अन्य पौराणिक मन्दिर भी हैं। एक स्थान पर भगवान शिव की विशाल प्रतिमा स्थापित है जो कई किलोमीटर की दूरी से भी दृष्टिगोचर होती है। इस प्रतिमा को प्रसिद्ध धर्मप्रेर्मी श्री गुलशन कुमार जी ने स्वयं के व्यय से बनवाकर वहां स्थापित कराया है। श्री नरेन्द्र मोदी जी भी इस मूर्ति व यहां स्थित भव्य नागेश्वर नामी मन्दिर की यात्रा कर चुके हैं। सैकड़ों की संख्या में श्रद्धालु यहां आते-जाते रहते हैं। यहां से लौटते हुए रास्ते में वास्तुकला के एक सुन्दर नमूने के तौर पर ‘रूक्मणी मन्दिर’ भी आता है। अनेक विदेशी पर्यटकों को भी हमने यहां देखा जो गले में कैमरा लटकायें फोटो खींचते रहते हैं तथा श्रद्धापूर्वक मन्दिर में जाकर नमन भी करते हैं। यहां से लौटकर हम द्वारका के प्रसिद्ध मन्दिर के निकट एक होटल में आकर रूके। रात्रि में ही मन्दिर गये। मन्दिर काफी विशाल व भव्य है, आकर्षक व सुन्दर भी है। परन्तु इसके चारों ओर ऊंचे भवन निर्मित होने से इसका स्वरूप छुपा हुआ है। अन्दर प्रवेश कर ही इस वास्तुकला के अद्भुत नमूने और हमारे प्राचीन व पुराने वास्तुकलाविदों व कारीगरों की कला देखकर उनके प्रति हृदय श्रद्धा से भर जाता है। यहां भी हमें सहस्रों मूर्तिपूजक श्रद्धालु बन्धुओं के दर्शन हुए परन्तु ईश्वर के सच्चे स्वरूप के जानकार और उसपर दृण किसी भक्त से परिचय न हो सका। 20 फरवरी, 2015 को हमारी यात्रा का अन्तिम दिन था। इस दिन प्रातः हम पुनः अपने मित्र श्री कृष्णकान्त वैदिक के साथ मन्दिर गये। बाहर से ही मन्दिर की भव्यता को निहारा और लौट आये। वापिस यात्रा का हमारा रेल टिकट पोरबन्दर-मोतीहारी एक्सप्रेस में पोरबन्दर से दिल्ली तक आरक्षित था। अतः हम प्रातः पोरबन्दर के लिए निकल पड़े। यहां भी समुद्र का तट है। वहां जाकर तट पर हमनें एक दृष्टि डाली और वहां से महात्मा गांधी के जन्म स्थान पहुंचे जहां एक भव्य भवन स्मारक के रूप में निर्मित है। मांधीजी और कस्तूरबाजी के चित्र यहां पर्यटकों की जानकारी के लिए लगाये गये हैं। गांधीजी के जन्म स्थान व पैतृक भवन को मूल रूप में सुरक्षित रखा गया है। वह जन्म स्थान व उसके कमरों, पुराने दरवाजों व नीची छत वाले भवन तथा गांधी जी के माता-पिता के चित्रों को देखा। इसके साथ ही हमारी महर्षि दयानन्द जन्मभूमि, टंकारा की यह यात्रा सम्पन्न हुई। यहां से भोजनार्थ होटल और फिर वहां से पोरबन्दर रेलवे स्टेशन पहुंचे। 29 घंटो की यात्रा कर हम दिल्ली पहुंचे और दिल्ली से 11 घटें की यात्रा कर हम 22 फरवरी, 2015 को पूर्वान्ह देहरादून पहुंच गये। कुल मिलाकर हमारी यह यात्रा सुखद व अनुभवों से पूर्ण रही। मुख्य उद्देश्य महर्षि दयानन्द के बोधोत्सव में सम्मिलित होना था। इसके साथ हमें सोमनाथ मन्दिर, द्वारका, पोरबन्दर व अहमदाबाद के भ्रमण करने का भी अवसर मिला जिससे हम यहां के अनुभवों से भी लाभान्वित हो सके। अपने साथ के अन्य दो मित्रों व उनके परिवार को भी निकट से जानने का अवसर मिला।
यह लेख पाठकों के लिए किसी प्रकार से उपयोगी हो सकता है, यह हमें पता नहीं? हमें लगा कि कई दिन बाद हम अपने मित्रों से मिल रहे हैं तो उन्हें इसका विवरण व स्पष्टीकरण कर दें। इसी का परिणाम आज के इस लेख की यह पंक्तियां हैं। अन्तिम बात कहकर हम लेख को विराम देते हैं। महर्षि दयानन्द ने भारत को विश्व का अध्यात्मिक गुरू व संसार का सबसे सशक्त राष्ट्र बनाने के साथ विश्व को अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियों, व पाखण्ड से मुक्त करने तथा वेदज्ञान के प्रचार व प्रसार आदि का जो स्वप्न देखा था और जिसके लिए उन्होंने अपना एक-एक क्षण अर्पित किया, उसे हमारे देश की जनता ने आदर नहीं दिया और न ही वह अपने पूर्वज ऋषियों के सनातन मार्ग पर चल ही रही है। इस कारण से हमारी पूर्व की अनेक पीढि़यों ने नाना दुख, अपमान व स्वत्वहरण की भारी पीड़ायें झेली हैं। अपने बन्धुओं की यह स्थिति देखकर दुख होता है। ईश्वर करे कि महर्षि दयानन्द वा स्वयं ईश्वर की वेदों के प्रचार-प्रसार की आज्ञा देश व संसार में शीघ्र फलीभूत हों।
-मनमोहन कुमार आर्य