यशोदानंदन-८
कंस वापस अपने राजप्रासाद में आ तो गया परन्तु भगवान के प्रति शत्रुता के सागर में निमग्न वह बैठे-सोते, चलते-फिरते, भोजन करते, काम करते – जीवन की सभी अवस्थाओं में भगवान विष्णु का ही चिन्तन करने लगा। वह जितना ही इस चिन्तन से बाहर निकलने का प्रयास करता, उतना ही अनायास गहरे में डूब जाता। अपने मन का भय व्यक्त करे भी तो किसके सम्मुख? किसी के सम्मुख हंसी का पात्र बनना उसे किंचित भी पसंद नहीं था। एक दिन रात्रि के अन्तिम प्रहर में भय और उद्विग्नता जब चरम पर थी, निद्रा देवी ने कई दिनों से उपकृत नहीं किया था, विक्षिप्त हो हाथ में नंगी तलवार लिए देवकी का सिर धड़ से अलग करने के लिए कारागार की ओर चल पड़ा। मार्ग में ही एक मन ने प्रश्न किया –
“तो क्या अब यही शेष रह गया है? क्या महाप्रतापी कंस का भाल स्त्री-हत्या के कलंक के टीके के बिना शोभायमान नहीं होगा?”
“स्त्री-हत्या का कलंक मैं अपने मस्तक पर नहीं लगाना चाहता। लेकिन मैं करूं क्या? देवकी के गर्भ में मेरा हत्यारा पल रहा है। देवकी का वध करके मैं उसका भी वध करना चाहता हूँ। एक ही तीर से दो शिकार होंगे। मुझे असमंजस में मत डालो, मुझे आगे जाने दो …..।”
“……….आगे? कहाँ? तुम्हें अपना लक्ष्य पता भी है क्या? देवकी का वध करना ही था तो उसे आजतक जीवित ही क्यों रखा? अबतक उसके छः अबोध शिशुओं के वध के कलंक के टीके की चमक तुम्हारे मस्तक से धूमिल नहीं होने पाई है। क्या देवकी के वध के कलंक के साथ तुम जी सकोगे? यह पाप-कर्म तुम्हें विक्षिप्त भी बना सकता है।”
“विक्षिप्त, विक्षिप्त, विक्षिप्त! इस समय मैं विक्षिप्त नहीं हूँ, तो और क्या हूँ? जिस दिन से आकाशवाणी सुनी है, विक्षिप्त ही तो हो गया हूँ। यह विक्षिप्तता देवकी के एक-एक पुत्र के जन्म के साथ बढ़ती ही जा रही है। यह विष्णु मुझे पूर्ण विक्षिप्त करके ही छोड़ेगा। मुझे अपने शत्रु का वध करना ही होगा। मुझे विष्णु की हत्या करनी ही होगी …..।”
“अच्छी तरह सोच लो। तुम्हारा शत्रु विष्णु है या देवकी? ”
“विष्णु, विष्णु। कितनी बार कहूं, विष्णु। देवकी तो मेरी प्रिय भगिनी है।
“………… तो समय आने पर विष्णु का ही वध करना। आजतक विष्णु का कोई बालबांका भी नहीं कर पाया है। तुम्हें उसे प्रत्यक्ष पराजित करने और वध करने का स्वर्णिम अवसर नियति स्वयं प्रदान कर रही है। देवकी तुम्हारे कारागार में है। वह भी अत्यन्त कड़े पहरे में। उसमें सूर्य की किरणें भी प्रवेश नहीं कर सकतीं। उसके आठवें पुत्र के जन्म लेने की प्रतीक्षा करो। देवकी के आठवें पुत्र के रूप में यदि स्वयं विष्णु ही जन्म लेते हैं, तो उनका तत्क्षण वध करके अमिट यश का भागी बनो। जो काम हिरण्यकश्यपु, रावण और समस्त दैत्य, असुर या राक्षस नहीं कर सके, वह तुम कर सकते हो। वसुदेव ने अपने छः पुत्रों की निर्मम हत्या अपनी आँखों से देखी है, परन्तु एक बार भी उसने वचन-भंग नहीं किया है। और फिर वचन-भंग करके वह जा ही कहां सकता है? स्वयं विष्णु द्वारा तुम्हारे कारागार की अभेद्य दीवारों को पार करके खुली हवा में सांस लेना कठिन ही नहीं, असंभव भी है ….।”
“हा, हा, हा……! कंस ने जोरदार ठहाके लगाए। वापस अपने शयन-कक्ष में लौट आया। कई महीनों की लंबी अवधि के पश्चात्उसे सुखद निद्रा आई थी। दिन के द्वितीय प्रहर तक वह सोता ही रहा।
अन्ततः वह शुभ दिन आ ही गया। ब्रह्मा के द्वारा प्रत्यक्ष रूप से संचालित शुभ नक्षत्र रोहिणी गगन में दिव्य ज्योति के साथ प्रकट हो रही थी। अन्य नक्षत्रों की भी आभा स्वयमेव बढ़ गई। सभी दिशायें – पूर्व-पश्चिम, उत्तर-दक्षिण पूर्ण संपन्नता के साथ शान्त थीं। प्रतीक्षा की इस घड़ी में तिनके के गिरने की आहट भी उन्हें अभीष्ट नहीं था। ग्राम, गोचर, स्त्री, पुरुष — जन-जन के मन में सौभाग्य-चिह्न दृष्टिगोचर हो रहे थे। सरोवरों में असंख्य कमल एक साथ खिल उठे। एक दिव्य सुगंध ने समस्त भूलोक को अपने घेरे में ले लिया। उफनती नदियां तीव्र गति से जल प्रवाहित कर अपने हृदय की प्रसन्नता व्यक्त कर रही थीं। वनों में वन-पुष्प खिलकर अपनी सुरभि अलग से बिखेर रहे थे। चिड़ियां चहचहाने लगीं और वन-मयूर अपने-अपने जोड़ों के साथ अर्द्धरात्रि में निद्रा को त्याग नृत्य में मगन हो गये। सभी पुष्पों की सुरभि का वाहक बन शीतल समीर मन्द-मन्द बहने लगा। महल के बंद कमरे में सोए कंस के अतिरिक्त समस्त सृष्टि ने इस दिव्य परिवर्तन की अनुभूति की। श्रीकृष्ण-आगमन की अनुगूंज दूसरे लोकों के प्राणियों ने भी सुनी। गन्धर्व और किन्नर अपने-अपने लोकों में मधुर गायन करने लगे, सिद्ध और चारण लोक के वासी स्वयं की अन्तःप्रेरणा से श्रीविष्णु की प्रार्थना में मगन हो गए। समस्त देवता और विद्याधर अपनी-अपनी अर्द्धांगिनियों के साथ हर्षपूर्वक नृत्य करने लगे। समस्त ऋषि, मुनि, देवता अत्यन्त प्रसन्न हो पुष्पवृष्टि कर रहे थे। समुद्र की लहरों से संगीत की ध्वनि आ रही थी। आकाश में बादल थे। प्रसन्नता व्यक्त करने में वे क्यों पीछे रहते? बरस रहे थे और खूब बरस रहे थे। भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की वह रात्रि थी। चन्द्रमा बादलों की ओट में छिप गया था। उसे प्रकृति की यह व्यवस्था स्वीकार नहीं थी। उसने पूर्ण चन्द्र की भांति अपना तेज स्वयं बढ़ाया। बादलों को चीरकर उसकी शीतल किरणें पृथ्वी पर पहुंचने लगीं। समस्त ग्रह, नक्षत्र, पृथ्वी, आकाश — सबकी प्रतीक्षा की घड़ियां पूर्ण हुईं। श्रीविष्णु ने संपूर्ण ब्रह्माण्ड को अनुगृहीत करते हुए शिशुरूप में जन्म लिया। देवी देवकी को किसी प्रकार के प्रसव-पीड़ा की अनुभूति नहीं हुई। प्रकृति में इतने परिवर्तन के साथ परब्रह्म के अवतार के साक्षी दो ही प्राणी थे – पिता वसुदेव और माता देवकी। क्षण के शतांश में ही उनके हृदय भय से मुक्त हो गए। हर्ष से गद्गद माता-पिता ने बारी-बारी से शिशु को हृदय से लगाया। आनन्दाश्रु निरन्तर बहकर नेत्रों से कपोलों को आ रहे थे। शीघ्र ही दोनों को आभास हुआ कि वह दिव्य शिशु और कोई नहीं, स्वयं श्रीचतुर्भुज हैं। माता-पिता, दोनों ने उनकी स्तुति की –
“हे भगवन्! हम भलीभांति जानते हैं कि आप कौन हैं? यह आपका अनुग्रह है कि समस्त जीवों के परमात्मा, सर्वशक्तिमान होने के बाद भी आपने देवकी के गर्भ का चयन किया और मनुष्य-रूप में अवतरित हो कंस के विनाश का मार्ग प्रशस्त किया। प्रभु! आपके एक इंगित से बड़े-से बड़े असुरों का संहार हो सकता है, परन्तु आप अपनी मनुष्य-लीला के द्वारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड को शाश्वत सत्य के प्रकटीकरण और दिव्य संदेश प्रदान करने के लिए ही इस बंदीगृह में उपस्थित हुए हैं। आपके तेज के प्रभाव से हमारी ही नहीं, उन सभी बंदियों की बेड़ियां भी खुलेंगी जिन्हें अधर्मियों ने सांसारिक बंदीगृहों में बंद कर असंख्य यातनायें दी हैं। आप अपने दिव्य शाश्वत स्वरूप में प्रकट हुए हैं और अपने जीवन भर के संचित पुण्यों के बदले हम आपका प्रत्यक्ष दर्शन पा रहे हैं।
हे प्रभु! आप परम नियन्ता ईश्वर तथा इस दृश्य जगत की व्यवस्था को बनाए रखने वाले हैं। परम नियन्ता होते हुए भी आपने हमारा पुत्र बनना स्वीकार किया। आप परम कृपालू हैं। हमें अच्छी तरह ज्ञात है कि संसार की आसुरी शक्तियों के विनाश के लिए ही आपका अवतार हुआ है। दुष्ट कंस ने आपके सभी अग्रजों की निर्मम हत्या की है। वह आपके जन्म की प्रतीक्षा कर रहा है। हे दीनदयाल कृपा कर आप ही बतायें कि इस बंदीगृह से किस भांति आपको सुरक्षित स्थान पर पहुंचाया जाय?”
बहुत अच्छी कथा !