उपन्यास अंश

यशोदानंदन-९

शिशु कृष्ण मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे। वे जी भरके अपने माता-पिता को देख लेना चाह रहे थे — पता नहीं समय के कितने अन्तराल के बाद पुनः उनके दर्शन प्राप्त हों। माता-पिता की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी – कही कोई बंदी-रक्षक जग न जाय? किसी की दृष्टि शिशु पर न पड़ जाय? शिशु ने माता-पिता की चिन्ता लक्ष्य की। ऐसा लगा कि बाँसुरी के मधुर स्वर से  बंदीगृह का कक्ष गुंजायमान हो गया। एक स्वर-लहरी वसुदेव जी के कर्णतंत्र से टकराई –

“हे मेरे माता-पिता! मैंने तीसरी बार आपके पुत्र के रूप में जन्म लिया है। आपने प्रत्येक जन्म में अत्यन्त लाड़-प्यार से अपने प्रिय पुत्र के रूप में मेरा लालन-पालन किया है। मैं आप दोनों से अत्यन्त प्रसन्न हूँ और हृदय के अन्तस्तल से कृतज्ञ भी हूँ।  मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि इस बार आप अपने उद्देश्य को पूरा करके भगवद्धाम वापस जायेंगे। मैं जानता हूँ कि आप मेरे लिए चिन्तित हैं और कंस से भयभीत भी। परन्तु मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ कि वह मेरा बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। इस समय इस बंदीगृह के सभी रक्षक गहन निद्रा में सो रहे हैं और सारे कपाट भी खुले हैं।  अवसर का लाभ उठायें – मुझे गोकुल ले चलें और वहां माता यशोदा और नन्द बाबा की नवजात कन्या, जो अभी-अभी उत्पन्न हुई है, उससे मुझे बदल लें। आपके वापस आने के पश्चात्‌ही बंदीगृह के कपाट स्वयमेव बंद हो जायेंगे और बन्दीरक्षक निद्रा का परित्याग कर देंगे।”

देवी देवकी ने एक बार नवजात शिशु को अपनी बांहों और वक्ष से ऐसे जकड़ लिया मानो उसे वे स्वयं से अलग करेंगी ही नहीं। वसुदेव जी बार-बार आग्रह करते रहे, परन्तु देवकी के आँसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। बार-बार शिशु के कपोलों, भाल, मस्तक और अधरों पर अपना स्नेहसिक्त चुंबन अंकित कर रही थीं। इधर वसुदेव जी की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। उनके अनुरोध ने याचना का रूप ले लिया। माता देवकी के स्तनों में दूध उतर आया। अन्तर्वस्त्र गीले हो गए। शिशु कृष्ण माता के आंचल में छिप गए – जी भर कर दुग्धपान किया। पूर्ण संतुष्टि के बाद आंचल के बाहर सिर निकालकर माता को देखा, जैसे कह रहे हों —

“ माता! अब जाने भी दो। यथाशीघ्र पुनः तुम्हारी सेवा में उपस्थित होऊंगा।”

सम्मोहन में बंधी देवकी खड़ी हुईं। शिशु को वसुदेव जी को सौंप पुनः अश्रुवर्षा करने लगीं।

“मुनिवर! श्रीकृष्ण ने तीसरी बार देवकी के गर्भ से जन्म लिया, यह रहस्य कुछ समझ में नहीं आया। कृपा कर इसपर विस्तार से प्रकाश डालें,” नन्द बाबा और मातु यशोदा के स्वर एक साथ वातावरण में गूंज उठे।

महर्षि गर्ग ने शंका का समाधान किया —

“हे नन्द बाबा और मातु यशोदा! स्वयंभु मनु के कल्प में वसुदेव जी एक प्रजापति थे। उनका नाम था – सुतपा। देवी देवकी उनकी धर्मप्राण भार्या थीं। उनका नाम था पृश्नि। वे दोनों बाल्यकाल से ही सात्विक प्रवृत्ति के थे। विवाह के पश्चात्‌भी दोनों ने मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए कठोर तपस्या की। योग-पद्धति में प्राणायाम का अभ्यास करते हुए दोनों पति-पत्नी ने वर्षा, वायु, चिलचिलाती धूप, प्रचंड शीत को सहते हुए अपने समस्त धार्मिक नियमों का कड़ाई से पालन किया। तपस्या करते हुए दोनों वृक्षों से जमीन पर गिरी हुई पत्तियों का का ही आहार करते थे। तपस्या की पूरी अवधि में उनका मन चतुर्भुज श्रीविष्णु की छवि पर ही केन्द्रित रहा। उन दोनों ने स्थिर मन तथा इन्द्रिय-निग्रह द्वारा जो अद्भुत तप किया, उससे उनके अन्तःकरण पूर्ण रूपेण विशुद्ध हुए और अन्ततः श्रीविष्णु ने प्रसन्न होकर उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन देते हुए वर मांगने का अनुरोध किया। देवी देवकी ने पुत्र रूप में उनके दर्शन की कामना की। ‘एवमस्तु’ कहकर परब्रह्म अन्तर्धान हो गए। तपस्या पूर्ण होने के पश्चात्‌देवी पृश्नि और सुतपा जी अपने महल में वापस आए। कालक्रम से पृश्नि गर्भवती हुईं और एक दिव्य एवं विलक्षण शिशु की माँ बनीं। शिशु का शुभनाम था – पृश्निगर्भ। अगले कल्प में यही जोड़ी कश्यप और अदिति के रूप में इस लोक में आई। भगवान विष्णु पुनः उनके पुत्र के रूप में प्रकट हुए। उपेन्द्र नाम का यह शिशु कद में बहुत छोटा ही रहा। उसके समवय के शिशु समय के साथ लंबाई प्राप्त करते रहे लेकिन उपेन्द्र बौने ही रह गए। परन्तु अथाह ज्ञान का स्वामी बन उन्होंने समस्त ऋषिकुल को अश्चर्यचकित होने पर वाध्य कर दिया। उनकी कीर्ति और यश-पताका पृथ्वी के इस छोर से उस छोर तक लहराती थी। सभी आदर से उन्हें ‘वामदेव’ कहकर संबोधित करते थे। इसी वामदेव ने दैत्यराज बली के अहंकार को ध्वस्त करते हुए दो पगों में सारा ब्रह्मांड नाप दिया था।”

बन्दीगृह के बाहर मेघ जलवृष्टि कर रहे थे और बिजली भी पूरी शक्ति से कड़क रही थी। चन्द्रमा और बादलों में लुकाछिपी का खेल चल रहा था। दोनों एक दूसरे से होड़ कर रहे थे – कौन पहले श्रीहरि का दर्शन करे! परन्तु इन तीनों – मेघ, दामिनी और राकेश की प्रतिस्पर्धा ने वसुदेव जी को चिन्तित कर दिया। नवजात शिशु को लेकर बाहर निकलें भी तो कैसे? कुछ क्षण पूर्व वे आश्वस्त थे कि उनके घर स्वयं श्रीहरि ने जन्म लिया था जिनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता, परन्तु एक सामान्य पिता के हृदय का वे क्या करते? जिसे मनुष्य सबसे अधिक प्यार करता है, उसकी सुरक्षा के प्रति उतना ही शंकालू भी रहता है। छोटी-छोटी घटनाओं पर चौंक जाता है। पिता के लिए पुत्र तो सिर्फ पुत्र होता है, वह चाहे परब्रह्म हो या सामान्य शिशु। पिता का हृदय पुत्र को कभी बड़ा मानने के लिए तैयार नहीं होता। वह अपने जीवन के अन्तिम दिनों – वृद्धावस्था में भी पुत्र पर आए प्रत्येक छोटे-बड़े संकट का निवारण करने के लिए स्वयं को प्रस्तुत करने के लिए सदैव तत्पर रहता है। क्या महाराज दशरथ को यह ज्ञात नहीं था कि श्रीराम स्वयं ब्रह्म थे? बक्सर में ताड़का और राक्षसों का अकेले संहार करनेवाला तथा अद्भुत शिव-धनुष का भंजन करने वाला सामान्य किशोर नहीं हो सकता था। वे श्रीराम की शक्ति और क्षमता से पूर्ण परिचित थे, पर राम-वन-गमन के पश्चात्‌अपनी व्यथा और अपनी चिन्ताओं पर नियंत्रण कहां रख पाए? पुत्र-शोक में उन्होंने प्राण त्याग दिए। पिता की सबसे बड़ी कमजोरी पुत्र ही होता है। वसुदेव जी भी इससे कहां मुक्त हो पाए थे? आकाश से पृथ्वी पर अविरल गिर रही जल की बूंदें कही शिशु को आहत न कर दें? उनकी चिन्तित आँखें चारों दिशाओं में दौड़ गईं। जब इच्छा तीव्र हो जाती है तो साधन स्वयं उपलब्ध हो जाते हैं। एक खुली मंजूषा से निकलती दिव्य ज्योति ने वसुदेव जी का ध्यान बरबस आकृष्ट किया। बेंत की बनी खुली मंजूषा! ऊपर खुलने वाला ढक्कन भी। और क्या चाहिए था? अंधे को आँख ही न? उन्हें समझने में देर नहीं लगी। समस्त व्यवस्थायें अपने आप हो रही थीं। वसुदेव जी और देवी देवकी ने शिशु कृष्ण को अत्यन्त सावधानी से मंजूषा में लेटाया। माता के पास जो भी वस्त्र थे, उससे नरम बिछौना बनाया। नेत्र-कोरों में जमे काजल का डिठौना लगाना वे भूली नहीं। अनजान दिशा में विदा करने के पूर्व शिशु के कपोलों और अधरों का चुंबन लेने से स्वयं को रोक नहीं पाईं। नेत्रों से बरस रही कुछ बूंदों ने शिशु की आँखों में शरण पाई। शिशु फिर भी नहीं रोया। उसने मुस्कुरा कर जननी को सांत्वना दी। परन्तु जननी धीरज धरे तो कैसे? बंदीगृह के एक कोने में सिर टिकाकर देर तक सुबकती रहीं। कंधे पर हाथ रखकर धीरज बंधाने वाला भी तो कोई समीप नहीं था। वसुदेव जी तो शिशु के साथ निकल पड़े थे — गोकुल की राह पर।

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-९

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

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