वृहतयज्ञों व सत्संगों से होने वाले धर्म-लाभ पर विचार
एक प्रसंग में हमने पढ़ा कि अनुक स्थान पर एक वृहत यज्ञ हो रहा है। वहां पहुंच कर व कार्यक्रम में भाग लेकर धर्मप्रेमी श्रद्धालुजन धर्मलाभ प्राप्त करें। यह पढ़कर हमें लगा कि हम यह जानें कि किसी वृहत यज्ञ में जाकर भाग लेने से क्या धर्मलाभ होता है और जो यह कहा जाता है कि वहां पहुंचने व कार्यक्रम में भाग लेने से धर्म लाभ होगा, वस्तुतः इसमें क्या भाव व लाभ छिपा हुआ है।
धार्मिक कर्म करने के लिए यदि हम अपने निवास पर रहते हैं तो हमें लगता है कि हम अधिक धर्म के कार्य कर सकते हैं। रात्रि में सुख की निद्रा ले सकते हैं, प्रातः काल 3 से 4 बजे के मध्य उषाकाल या ब्रह्म-मुहुर्त में सो कर उठ सकते हैं, वायु सेवन वा भ्रमण के लिए जा सकते है। भ्रमण से लौटकर स्नान आदि शौच क्रियाओं से निवृत होकर प्राणायाम व व्यायाम आदि भी कर सकते हैं तथा यथा समय सन्ध्या व यज्ञ भी कर सकते हैं। इसके अतिरिक्त समय पर अपने स्वास्थ्य या परिस्थिति के अनुसार भोजन व आवश्यकतानुसार औषध आदि भी ले सकते हैं। अपने व्यवसाय आदि के कार्यों को भी सुचारू रूप से कर सकते हैं। इसी प्रकार से दिन व सायंकाल के अन्य सभी कार्यों को भी सम्पादित कर सकते हैं। अब यदि किसी दूरस्थ स्थान पर वृहत यज्ञ, बड़े सत्संग, आर्य समाज आदि संस्थाओं के वार्षिकोत्सव व अन्य ऐसे किसी समारोह में जाते हैं तो हमें छोटी या लम्बी यात्रायें करनी होती हैं जो आजकल भारी असुविधाजनक एवं व्यवसाध्य हैं। अनेक कष्टों को झेलकर गन्तव्य पर पहुंचते हैं तो सबसे पहले वहां निवास की समस्या आती है। दोनों स्थितियां सामने आती है अर्थात् कहीं शौचालय, स्नान, भोजन व निवास का समुचित प्रबन्ध मिल जाता है और कहीं नहीं भी मिलता जिससे कई बार मानसिक क्लेश होता है। हमारी घर पर रहकर जो दिनचर्या होती है वह भी भंग हो जाने से उससे होने वाले धर्म लाभ से हम वंचित हो जाते हैं। नये स्थान पर हम एक मूक दर्शक व श्रोता के रूप में होते हैं। इससे आज की परिस्थितियों में यदा-कदा कुछ मनोरंजन तो हो जाता है परन्तु अधिक ज्ञानवर्धन होता है, कहा नहीं जा सकता। कारण यह है कि आज सभी प्रकार का धार्मिक, सामाजिक व हितकारी साहित्य घर पर ही उपलब्ध हो जाता है वा रहता है। उसे पढ़कर हर विषय का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है और जहां कहीं किसी प्रकार की शंका हो वह स्थानीय विद्वानों की सेवा व संगति से दूर की जा सकती है। सद्ग्रन्थों के स्वाध्याय से जो लाभ घर बैठे होता है, हमारा अनुमान है कि वह किसी बड़े आयोजन वा कार्यक्रम में जाकर नहीं मिलता। इसलिए हमें घर पर रहकर धर्म-कर्म करने वा स्थानीय आयोजनों में चाहे वह सत्संग हो, वृहत यज्ञ व अन्य धार्मिक कार्यक्रम हों, अधिक लाभप्रद प्रतीत होते हैं। इससे धन, समय की बचत व सुविधा रहने के साथ धर्मलाभ होता अधिक प्रतीत होता है।
हम यह जानते हैं कि धर्म को जानने व पालन करने से लाभ होता है। यह बात वेदों के परिप्रेक्ष्य में सत्य सिद्ध होती है। धर्म मनुष्य के कर्तव्यों यथा सत्याचरण व वेद विहित कर्मों को करने को कहते हैं। यदि कोई सन्तान अपने माता-पिता की सेवा-सुश्रुषा करती है, तो यह वेद विहित व वेदानुकूल होने से उसे धर्मलाभ अर्थात् सुख-शान्ति आदि की प्राप्ति होती है। हमें लगता है कि सन्तानों की सेवा से माता-पिता को प्रसन्नता मिलती है। उस प्रसन्नता से वह अपनी सन्तानों के प्रति शुभकामनायें करते हुए उन्हें आशीर्वाद देते हैं। उनके आशीर्वाद का भी एक भाग तो यह है कि उनके पास जो धन-सम्पत्ति व साधन होते हैं उसमें से वह अपनी इच्छा से व हमारी आवश्यकतानुसार हमें प्रदान करते हैं क्योंकि जो हमारी सेवा करता है व हमारे प्रति आदर भाव रखता है उसके प्रति हमारा प्रेम व कृतज्ञता का भाव बन जाता है। जब ऐसा होगा तो हम भी यह चाहेंगे कि सेवाभावी हमारी सन्तान अधिक से अधिक सुखी व प्रसन्न रहे। दूसरी बात आशीर्वाद की है। मान लीजिए हमने अपने माता-पिता, वृद्ध व अपने अन्य किसी सगे, सम्बन्धी या किसी अज्ञात व्यक्ति की सेवा की है और उसके पास हमें देने के लिए कुछ नहीं है। वह कहेगा कि ईश्वर आपको सुख-शान्ति-सुसन्तान-धन-सम्पत्ति व समृद्धि प्रदान करें। इसका अर्थ है कि वह ईश्वर से हमारे लिए प्रार्थना वा सिफारिश कर रहे हैं। ईश्वर ऐसी स्थिति में क्या करेगा? वह आशीर्वाद देने व प्रार्थना करने वाले तथा जिसको आशीर्वाद दिया गया है, उन दोनों की पात्रता देखेगा और तदानुसार फल प्रदान करेगा। इससे भी आशीर्वाद प्राप्त करने वालों का कल्याण होता है। अतः वृद्ध, अपने से बड़ों, असहाय, दुखी व पीडि़तों की सेवा करने से धर्मलाभ प्राप्त होता है व सभी को करना चाहिये। इसी प्रकार से ईश्वर का ध्यान वा सन्ध्या, दैनिक अग्निहोत्र, मनुष्येतर पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों के प्रति अंहिसा व मैत्री का भाव रखने से भी हमारे जीवन में दिव्य गुणों का प्रादुर्भाव हो सकता है जो हमारे कल्याण व धर्मलाभ के अन्तर्गत कहे जा सकते हैं।
दूरस्थ स्थानों में जाकर आयोजनों में भाग लेने में नाना प्रकार की असुविधाओं का संकेत हम कर चुके हैं। एक अनुभव भी लिख देना अनुचित न होगा। पिछले दिनों हम 6 व्यक्ति एक दूरस्थ स्थान पर गये जहां हजारों की संख्या में लोग देश-विदेश से आये हुए थे। हमारे साथ की एक 65 वषीय बहिन जी को गर्मी अथवा किसी कारण से वहां शोभा यात्रा के आरम्भ के समय में ही नाक से खून बहने लगा। हमारे साथ गई दो अन्य महिलायें उनके साथ थी। निकट के एक व्यक्ति ने उन्हें अपने घर में छांव में आश्रय दिया फिर वह उन्हें आश्रम में छोड़ गया। आश्रम में हजारों लोगों की उपस्थित होने पर भी किसी चिकित्सक की कोई व्यवस्था नहीं थी। कस्बे के एक डाक्टर के पास हमारे मित्र गये तो उसका क्लिनिक बन्द था। उसके घर गये तो वह नशे में था। वह तुरन्त लौट आये और उससे सहायता लेना उचित नहीं समझा। इसके बाद भी यात्रा में ही 3 बार यह घटना और घटी जिससे हम सभी साथी चिन्तित थे परन्तु पीडि़त बहिनजी ने अपने आत्मबल का परिचय देते हुए हमें चिन्ताओं से मुक्त रखा और समस्या व रोग होने पर कुछ देर विश्राम कर पुनः हमारे साथ भ्रमण करती रहीं। इस प्रकार की समस्यायें भी प्रायः दूर स्थानों की यात्रा करने में हुआ करती हैं। अतः वृद्धावस्था में यदि यात्राओं से बचा जाये तो हमें लगता है कि उचित रहता है। यदि हम घर में रहते हैं तो किसी प्रकार की भी असामयिक व्याधि व रोग होने पर तुरन्त चिकित्सकीय सेवायें प्राप्त की जा सकती हैं। अतः स्वास्थ्य आदि से जुड़े इस प्रकार के असामयिक कारण भी हानिकारक सिद्ध होते हैं जिन पर यात्रा करने वालों को ध्यान देना चाहिये। हम यहां एक आर्य समाज के उच्चस्तरीय विद्वान व्याकरणाचार्य वैदिक विद्वान पं. भीमसेन शास्त्री जी के साथ घटी घटना का वर्णन करना भी प्रासंगिक समझते हैं। वह कहीं से निमन्त्रण मिलने पर प्रचारार्थ अपने निवास स्थान से बस द्वारा यात्रा पर निकले थे। काफी दूर जाने पर बस में यात्रा करते हुए ही बस में बैठे हुए ही उनका हार्ट अटैक के कारण निधन हो गया। वह किसी से कुछ कह नहीं पाये। उनके शव को पुलिस थाने में पहुंचा दिया गया। घर के लोग बेफिक्र थे कि अवधि पूरी होने पर स्वयं आ जायेंगे। कई दिनों बाद परिवार के लोगों को इस घटना का पता चला। ऐसी अन्य कुछ घटनायें भी हमारी दृष्टि में आयीं हैं। इससे भी यही शिक्षा मिलती है कि कहीं जाने से पहले अपने स्वास्थ्य आदि की स्थिति के बारे आश्वस्त हो जायें जिससे भावी किसी दुखद स्थिति से बच सकें।
महर्षि दयानन्द जी ने आर्यों के नित्य कर्मों में सन्ध्या व दैनिक अग्निहोत्र का विधान किया है और इन्हें महायज्ञ के नाम से विभूषित किया है। इनसे निश्चित रूप से धर्मलाभ होता है और महायज्ञ का अर्थ करें तो कह सकते हैं महान श्रेष्ठतम् कर्म यह सन्ध्या व दैनिक यज्ञ हैं। वृहत यज्ञों का करना भी वायुमण्डल की शुद्धि के साथ आत्मकल्याण का एक उत्तम कार्य है। इसको स्वयं करने व ऐसे कार्यों में सहयोग करने से धर्म लाभ कुछ न कुछ तो होता ही है। यह धर्म लाभ केवल ईश्वर ही जान सकते हैं कि यह मात्रा की दृष्टि से दैनिक महायज्ञों से कुछ कम होता है वा अधिक। महर्षि दयानन्द के जीवन पर दृष्टि डालें तो वह पाखण्ड-खण्डन, पंचमहायज्ञ व वेद प्रचार करने तक ही सीमित दीखते हैं। सन्ध्या में तो उन्होंने समर्पण मन्त्र लिखकर इसे सर्वाधिक महत्व प्रदान किया है। समर्पण मन्त्र में वह लिखते है – ”हे ईश्वर दयानिधे ! भवत्कृपयानेन जपोपासनादिकर्मणा धर्मार्थकाममोक्षाणां सद्यः सिद्धिर्भवेन्नः।“ अर्थात ”हे परमेश्वर ईश्वर दयानिधे ! आपकी कृपा से जप और उपासना आदि कर्मों को करके हम आज ही वा शीघ्र धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की सिद्धि को प्राप्त हों।“ इससे अधिक तो भक्त, धर्मप्रेमी व श्रद्धालु को कुछ चाहिये ही नहीं। इसी के लिए तो सारा धर्म-कर्म किया जाता है। अतः हमें लगता है कि धर्मप्रेमी बन्धुओं को सर्वाधिक ध्यान शरीर को स्वस्थ रखने के साथ “सन्ध्या” व परोपकार आदि कार्यों पर देना चाहिये। इससे ‘यतोभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः’ अर्थात अभ्युदय व निःश्रेयस की सिद्धि का लक्ष्य पूरा होता है। अतः किस कर्म से कितना व कैसा धर्म लाभ प्राप्त होता है व होगा, इस पर सुधी पाठकों को निष्पक्ष होकर ध्यान देना चाहिये। हमारा आशय है कि पौराणिक धर्मलाभ जैसे महात्म्यों के प्रति विश्वास से बचना चाहिये। महर्षि दयानन्द के वाक्यों को प्रमाण मानना चाहिये। हमने यह लेख पूर्वाग्रह से मुक्त होकर लिखा है। सुधीजनों की प्रतिक्रियायें आमत्रित हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
वातावरण पर यज्ञ के सुपरिणाम मैंने अपनी आँखों से देखे हैं. मेरठ में एक आश्रम में प्रतिदिन दो बार यज्ञ होता है. उसके आसपास के खेतों में बहुत अच्छी पैदावार हमेशा होती है, जबकि दूर के खेत कम पैदावार देते हैं. क्या यह साधारण बात है?
ममोहन जी, आप लेख हमेशा अछे ही लिखते हैं , आप ने एक महला के बारे में लिखा जिस के नाक से खून बह रहा था, मैं भी यही सोचता हूँ कि बज़ुरग लोगों को कठिन यात्रा से परहेज़ ही करना चाहिए , इस से उन लोगों की श्रधा में कोई फरक नहीं पड़ता . जिस हालत में मैं हूँ , अगर जिद करके बच्चों को मजबूर करूँ तो यह बात बहुत गलत होगी .