सज़ा
वो जो रह रह कर चोट खाते हैं
रोज़ ही एक न्या दर्द पाते हैं
क्या उनको पता होगा
की चोट तो वो खाते हैं
मगर
आंसू हमारी आँखों में आते हैं
वो जब भी हो जाते हैं गुम
अनगिनत चिंताओं में
क्या उनको पता होगा
उनकी चिंताएं
हमारी चिता का
सबब बन जाते है
जब से देखा है उन्हें
साक्षात् अपनी आँखों से
उनके चेहरे की उदासी
दिल को कचोटती है
नही भुला सकते
उनकी दुखती हुई दर्द-ए-जिंदगी
उन्हें यह समझना होगा
कि
खंजर उनको घायल करता है
लेकिन मौत की सजा हम पाते हैं
हां, हम पाते है
महेश जी , बहुत अच्छी कविता .
अच्छी कविता ! मुझे एक शेर याद आ रहा है-
खंजर की क्या मजाल है कि इक जख्म कर सके !
तेरा ही ये ख़याल है कि घायल हुआ है तू.
धन्यवाद विजय जी
विजय भाई शेअर तो गज़ब का लिखा है.
भाई जी, यह मेरा लिखा हुआ शेर नहीं है, बल्कि स्वामी रामतीर्थ जी महाराज का लिखा है. उनका नाम आपने सुना होगा.