यशोदानंदन-१०
मेघ, दामिनी और चन्द्रमा – तीनों ने जगत्पिता के एक साथ दर्शन किए। अतृप्ति बढ़ती गई। तीनों पूर्ण वेग से आकाश में प्रकट होने की प्रतियोगिता करने लगे। दामिनी की इच्छा थी कि वह प्रभु का मार्गदर्शन करे और चन्द्रमा की इच्छा थी कि वह करे। मेघ और दामिनी की इस दुर्लभ संधि ने चन्द्रमा को निराश किया। मेघ प्रसन्नता में अपने अस्तित्व को मिटा डालने पर तत्पर था और दामिनी पूर्ण शक्ति से मार्ग दिखाने के लिए आतुर। वसुदेव जी ने मंजुषा की छतरी को एक हाथ से व्यवस्थित किया। वे नहीं चाहते थे कि वर्षा की एक बूंद भी शिशु की कोमल त्वचा का स्पर्श करे। मंजुषा की छतरी को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो स्वयं शेषनाग अपना विस्तृत फन फैलाकर अपने प्रभु की रक्षा कर रहे हों। सभी अपने-अपने कर्त्तव्य-पालन में पूरी निष्ठा से लगे थे।
अत्यन्त कठिनाई से लंबे-लंबे डग भरते हुए वसुदेव जी कालिन्दी के किनारे पहुंचे। यमुना तो इस पल की प्रतीक्षा युगों-युगों से कर रही थीं। वह पल आ ही गया। आनन्द के उद्वेग में उन्होंने तटों की सीमा-रेखा को मानने से इंकार कर दिया। उफनती यमुना की गरजती लहरें अपने ढंग से अपनी प्रसन्नता और व्यग्रता व्यक्त कर रही थीं। लहरों के गिरने और उठने की गति इतनी तीव्र थी कि यमुना का समस्त जल दुग्धवत दृष्टिगत होने लगा। वसुदेव जी ने एक विहंगम दृष्टि यमुना पर डाली। इस बार वे किंचित भी विचलित नहीं हुए। उन्हें ऐसा आभास हुआ, जैसे गगन से कोई मधुर स्वर में कह रहा हो -“मैं अमर्त्य हूँ, अमर हूँ। यमुना मुझे निगल नहीं सकती, हवा मुझे सुखा नहीं सकती और अग्नि मुझे जला नहीं सकती। निश्चिन्त होकर बढ़ते चलो। यमुना तुम्हें स्वयं मार्ग दे देगी।”
वसुदेव जी बढ़ते गए, बढ़ते गए। कालिन्दी ने प्रभु के चरण-स्पर्श किए और फिर सिमटा लिया स्वयं को। वसुदेव जी नदी में ऐसे जा रहे थे, जैसे स्थलीय मार्ग पर चल रहे हों। इसी समय आपने, मातु यशोदा! हाँ आपने एक कन्या को जन्म दिया। वे योगमाया थीं। उनकी माया के प्रभाव से प्रसव के पश्चात् आप गहरी निद्रा में चली गईं। आपने अपनी पुत्री के दर्शन भी नहीं किए। नन्द बाबा के महल के द्वार भी खुल गए। सभी प्रहरी और ग्वाले सुख की नींद ले रहे थे। वसुदेव जी को आपके कक्ष तक पहुंचने में किसी कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ा। उन्होंने कुशलता से अपने हृदयांश को आपकी बगल में लेटा दिया और आपकी पुत्री, योगमाया को अपनी गोद में ले मथुरा के बंदी गृह में लौट आए। आप ने जब आँख खोली तो शिशु कृष्ण को बगल में लेटा पाया। वह हाथ-पांव चलाकर आपको जगाने का प्रयास कर रहा था। आप अपनी स्मृति पर तनिक जोर डालें, तो आपको याद आ जाएगा कि जब आपने प्रथम बार उस शिशु को देखा था, तो वह बड़ी धृष्टता से आपकी आँखों में आँखें डाल मुस्कुराए जा रहा था।
यशोदा जी ने स्मृति-पटल पर तनिक-सा जोर दिया। श्रीकृष्ण के प्रथम दर्शन का वह दृश्य चलचित्र की भांति आँखों के सामने घूम गया।
वसुदेव जी के मथुरा के बंदीगृह में वापस आने के साथ ही ब्रह्म मुहूर्त्त का आगमन हो चुका था। योगमाया ने अपनी माया प्रदर्शित करना आरंभ किया। वे एक सामान्य शिशु की भांति जोर-जोर से रोने लगीं। बन्दीरक्षक भी अचानक गहरी निद्रा से जाग गए। उन्होंने देवी देवकी के कक्ष में एक शिशु कन्या को रोते हुए देखा और दौड़कर कन्या के जन्म लेने की सूचना कंस को प्रेषित की। कंस तो कई वर्षों से इस समाचार की आकुलता से प्रतीक्षा कर रहा था। श्रीहरि के वध की कल्पना से अत्यधिक रोमांचित कंस लगभग दौड़ते हुए बंदीगृह में उपस्थित हुआ। नवजात शिशु पर दृष्टि पड़ते ही उसे परम संतुष्टि की अनुभूति हुई। कहां वह निर्बल कन्या और कहां महाबली कंस? उसका अहंकार आकाश की ऊंचाई प्राप्त करने लगा, होठों पर एक कुटिल मुस्कान तिर गई। उसकी क्रूर प्रवृत्ति और बलवती हुई। उसने हाथ बढ़ाकर देवकी से कन्या मांगी। भय से कांपती देवकी ने कन्या को अपने वक्षस्थल से और कस के चिपका लिया। देवी देवकी ने अत्यन्त करुणा और दुःख के साथ अपने अग्रज से भावपूर्ण निवेदन किया —
“मेरे परम आदरणीय भ्राता! जिस आकाशवाणी को सुनने के उपरान्त तुमने अत्यधिक प्रिय होने के पश्चात् भी मुझे मेरे पति के साथ बन्दीगृह में डाल दिया और एक-एक करके सूर्य के समान तेजस्वी मेरे छः पुत्रों का वध कर दिया, उसे मैंने भी सुना था। मेरे प्रिय भ्राता! आकाशवाणी के अनुसार मेरे आठवें पुत्र के हाथों तुम्हारा वध होना निश्चित था, परन्तु हे राजन! मेरी यह आठवीं सन्तान तो कन्या है, स्त्री जाति की है और तुम्हारी पुत्री के समान है। बहन की पुत्री और ब्राह्मण एक ही श्रेणी में आते हैं। इनके वध से ब्रह्महत्या का पाप लगता है। इस समय मैं अत्यन्त दीन हूँ। मेरे प्यारे और समर्थ भ्राता! मुझ मंदभागिनी की इस अन्तिम सन्तान को जीवन-दान देकर सदा के लिए अनुगृहीत करो, मुझपर कृपा करो। मैं ईश्वर से तुम्हारे दीर्घ जीवन की सदैव कामना करूंगी। अपने शैशव-काल के उन दिनों को याद करो जब तुम मुझे बिना खिलाए एक ग्रास भी ग्रहण नहीं करते थे। एक रोटी का आधा भाग तुम खाते थे और आधा मैं। भैया! कैसे तुम उन दिनों को भूल गए? वाटिका में दौड़ते हुए जब एक छोटा कांटा भी मेरे पैर में चुभ जाता था, तो तुम्हारे नेत्रों में आंसू आ जाते थे। तुम इतने क्रूर क्यों हो गए, मेरे अग्रज? इस कन्या से तुम्हारे किसी अनिष्ट की संभावना दूर-दूर तक भी नहीं है। मेरे स्नेहिल भ्राता! मुझे अत्यन्त दीन समझ, दान समझ कर ही यह कन्या मुझे दे दो। मैं इसी के सहारे अपना शेष जीवन किसी भी स्थान पर – वन, गिरि, कन्दरा या कुटीर – जहां तुम कहोगे, गुजार दूंगी, पर इस कन्या को न मारो। मुझ पर कृपा करो, कृपा करो मेरे भ्राता, कृपा करो।”
रोचक प्रस्तुति !