कविता

चलो उठो….

कदमो के निशान
उभरते हैं रास्तो पर
रास्ते उभरते हैं
मंजिल की सुरत

बीते साल बीते दिन मौसम बीते
बीत गया हर पहर उम्र का
उम्र बीती साथ-साथ हर पहर
एक दिन ख़ास का
ख़ास दिन किसी एक का
बाकी बचे दिनों का जिक्र ख़ाक हुआ

अनगिनत किस्से
अनगिनत हिस्से
गिन-गिनकर बीते
जिन्हें चुन-चुनकर रखा

धुप ने उतारा आँचल शाम हुई
शाम ने हटाया पर्दा रात हुई
रात बिना लिबास आई जब आई
उतारने को कुछ ना था

यकीन झाँकता हुआ गिरा मुहँ के बल
देखने को कुछ ना था
क्या देखना हैं , तुम्हें….
बंद रहने दो दरवाज़े कुछ-एक
यूँ खामखा किस्सों को जवान नहीं करते
गैरो का क्या हैं
अपने हिसाब से देखेंगे वो
दिखा तो सही
ना दिखा तो भी बहुत कुछ देख ही लेंगे

आँसु से नदी नहीं बनती कभी
बेकार बहते हैं जब भी बहते हैं
उगते दिन पर टिकाओ आँखे
क्या जाने कुछ नया हो
नयापन ना भी हो तो
बहुत कुछ होगा पुराने से अलग

आसमा की जमीन पर ना नदी हैं ना रास्ता कोई
पाँव जमे हैं जहां पर
उसी जमीन पर मंजिल भी वही आस-पास ही मिलेगी
चलो उठो, रास्ते तक चलते हैं ।।

रुचिर अक्षर #

रुचिर अक्षर

रुचिर अक्षर. कवि एवं लेखक. निवासी- जयपुर (राजस्थान). मो. 9001785001. अहा ! जिन्दगी मासिक पत्रिका व अन्य पत्रिकाओं में अनेक कविताएँ , गजलें, नज्में प्रकाशित हुईं. वर्तमान समय में 'दैनिक युगपक्ष' अखबार में नियमित लेखन ।