उपन्यास अंश

यशोदानंदन-१२

योगमाया का प्रभाव समाप्त होते ही मातु यशोदा की निद्रा जाती रही। जैसे ही उनकी दृष्टि बगल में लेटे और हाथ-पांव मारते शिशु पर पड़ी, वे आनन्दातिरेक से भर उठीं। शिशु एक पवित्र मुस्कान के साथ उनको देखे ही जा रहा था। उन्होंने उसे उठाकर हृदय से लगाया। हृदय से लगते ही दूसरे क्षण शिशु ऊंचे स्वर में रोने लगा। जैसे ही मातु ने उसे दूध पिलाना आरंभ किया, वह पुनः शान्त हो गया। शिशु के रोने का स्वर सुन दासियां दौड़ती हुई आईं। मातु यशोदा को दुग्ध-पान कराते देख सबने हर्ष व्यक्त किया। एक गोपी ने मातु से प्रथम प्रश्न पूछ ही लिया —

“पुत्र या पुत्री?”

‘पुत्र,’ यशोदा जी ने अत्यन्त सूक्ष्म उत्तर दिया।

नन्द बाबा के महल में यह शुभ समाचार विद्युत-वेग से कोने-कोने में फैल गया। ऐश्वर्य, माधुर्य, वात्सल्य, प्रेम के अधीश्वर से पूर्ण जगत के स्वामी शिशु श्रीकृष्ण नन्द बाबा के व्रज में प्रकट हो चुके थे।

संपूर्ण सृष्टि वारिद-बूंदों के अनवरत पृथ्वी का आलिंगन करने से तृप्त ही नहीं, उल्लास से परिपूर्ण थी। धरती की धूल शांत हो गई थी। वायु की शीतलता की अनुभूति सभी वनस्पति और जीवधारी कर रहे थे। पर्वत के समान प्रतीत होनेवाले मेघों से सारा आकाश आछन्न था। ग्रीष्म ऋतु में धूप से तपी पृथ्वी नूतन जल से भींग कर विशेष सुगंध का सृजन कर रही थी। पर्वत पर विभिन्न प्रकार के तरुवर केवड़ों के गंध से सुवासित हो रहे थे। मानसरोवर में निवास के लोभी हंस वहां के लिए प्रस्थान को टालकर यमुना में ही जलक्रीड़ा में निमग्न हो गए। चकवे अपनी प्रियाओं से मिलने की आतुरता छोड़ मधुर स्वर में गायन करने लगे। आम्रकुंजों से पलायित कोयल अचानक वहां पहुंच पंचम स्वर में कूकने लगीं। यमुना की लहरें समुद्र से मिलने हेतु दूने वेग से मचलने लगीं। हर्षित बलाकायें उड़कर मेघों के पार जातीं और पुनः लौट आतीं। आकाश से गिरता हुआ मोती के समान स्वच्छ एवं निर्मल जल पत्तों के दोनों में संचित हो रहा था। पपीहे हर्ष से भरकर जल पी रहे थे। भ्रमर वीणा की झंकार की भांति गुनगुना रहे थे। विशाल पंख रूपी आभूषणों से विभूषित मयूर वन में नृत्य कर रहे थे – कुछ तो नन्द बाबा के द्वार पर अपने नृत्य की छटा बिखेर रहे थे। आकाश में लटके हुए मेघ अपनी गर्जना से समुद्र के कोलाहल को तिरस्कृत करके अपने जल के महान प्रवाह से नदी, तालाब, सरोवर, बावली तथा समूची पृथ्वी को आप्लावित कर रहे थे। धरा ने हरियाली की चादर ऐसे ओढ़ ली, मानो सर्वत्र हरे रंग का गलीचा बिछा हो। पवित्र भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी-नवमी तिथि थी। सर्वत्र शीतल, मन्द और सुगंधित पवन बह रहा था। धूप का दूर-दूर तक कहीं पता नहीं था। बादलों की घनी छाया ने गुलाबी शीतलता का सृजन किया था। वन-उपवन पुष्पों से लदे थे। पर्वतों के समूह मणियों की तरह जगमगा रहे थे और यमुना जी अमृत-धारा बहा रही थीं। योग, लग्न, ग्रह, वार और तिथि स्वयमेव अनुकूल हो गए थे। जड़ और चेतन हर्ष से अभिभूत थे। प्रभात होते ही संपूर्ण गोकुल ध्वज, पताका और तोरणों से आच्छादित हो गया। रात भर पूरी शक्ति से बरसते मेघों ने सूर्य की पहली किरणों के साथ ही विश्राम लेने का निर्णय ले लिया। कभी-कभी एक-दो मोटी-मोटी बूंदें गिराकर अपने हर्ष और अपनी उपस्थिति की सूचना देना नहीं भूलते थे। बिना स्वाभाविक शृंगार के ही गोपियां उठ पड़ीं, झुंड की झुंड मिलकर नन्द बाबा के महल की ओर चल पड़ीं। स्वर्ण कलशों और थालियों में मंगल-द्रव्य -भरकर मधुर स्वर में जन्म-महोत्सव के गीत गाते हुए सबने नन्द बाबा के घर में प्रवेश किया। घंटा-घड़ियाल और बधाई गीतों की कर्णप्रिय धुनों से प्रासाद क्या, पूरा गोकुल गूंज उठा। मागध, सूत, बन्दीजन और गवैये श्रीकृष्ण स्वामी के पवित्र गुणों का गान कर रहे थे। सभी ब्रह्मानन्द में मगन थे। सर्वत्र बधावा बज रहा था।

देखते ही देखते ग्यारह दिन बीत गए। मैंने स्वयं उस अद्भुत शिशु का नामकरण संस्कार संपन्न किया। मुझे कुछ सोचना नहीं पड़ा। उस शिशु का नाम तो भगवान विष्णु ने स्वयं रख छोड़ा था। मैं तो माध्यम मात्र था। परन्तु मैं अत्यन्त आह्लादित था। मेरे मुख से ‘श्रीकृष्ण’ नाम निकलते ही एक बार पुनः शंखनाद और घंटा-घड़ियाल की ध्वनि से पूरा वातावरण गूंज उठा। पूरे नगर में श्रीकृष्ण जन्मोत्सव और नामकरण-संस्कार का उत्सव मनाने की होड़-सी लगी थी। अबाल, वृद्ध, नर-नारी, गौवें-बछड़े, नदी-पर्वत, पेड़-पौधे – सभी आनंद-सागर में गोते लगा रहे थे।

नन्द जी तो जैसे अपना सर्वस्व लुटाने के लिए कटिबद्ध थे। उन्होंने ब्राह्मणों को वस्त्र और आभूषणों से सुसज्जित दो लाख गौवें दान की। रत्नों और सुनहले वस्त्रों से ढंके हुए तिल के सात पहाड़ दान किए। मातु यशोदा के साथ संकर्षण बलराम की माँ रोहिणी देवी ने भी सुन्दर-सुन्दर वस्त्र धारण किए और दिव्य शृंगार किया। उन्होंने यशोदा जी और गोपियों के साथ अन्तःपुर के आंगन में जी भरकर नृत्य किया। बालक बलराम शिशु कृष्ण के समीप जा तुतलाते हुए बोला –

“…. तो आ ही गए मेरे छोटे भाई। बहुत प्रतीक्षा कराई तूने। पिछली बार तो हम दोनों लगभग साथ-साथ ही इस पृथ्वी पर आए थे। इस बार इतनी लंबी प्रतीक्षा क्यों कराई? चलो प्रतीक्षा की घड़ियां भी पूरी हुईं। अब से हम दोनों साथ-साथ रहेंगे। परन्तु यह मत भूलना कि इस बार मैं तुम्हारा अग्रज हूँ। शैतानी और शरारत करोगे, तो कान खींचूंगा। मेरी बात हमेशा मानना।”

पालने में लेटे श्रीकृष्ण ने कुछ कहा नहीं। सिर्फ बलराम की ओर देखकर एक मधुर रहस्यमयी मुस्कान से अपनी प्रसन्नता की अभिव्यक्ति की। पालने में हाथ-पांव चला वे अपनी सक्रियता प्रदर्शित करने में नहीं चुके। पंक्तिबद्ध गोप-गोपियां दर्शन के लिए आतुर थीं। भ्रातृ-प्रेम में मगन बलराम पालना झुला रहे थे।

नियति का अद्भुत खेल! जन्म लिया मथुरा में और बधाई की दुन्दुभी बजी गोकुल में नन्द बाबा के द्वार। कितनी खुशी! कितनी प्रसन्नता! कितना आह्लाद! पर कौन जानता था, इसके पीछे छिपा हुआ रहस्य क्या था?

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-१२

  • विजय कुमार सिंघल

    अत्यन्त भावनापूर्ण एवं रोचक !

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