ऐ इश्क़
दबाये चिट्ठियाँ किताबों मैं कहीं एकांत तलाशते थे
ख़ुमारी ऐसी चढती थी के क़दम लड़खड़ाने लगते थे
ऐ इश्क़ कहाँ कोई तूझे अब इतना समझता है
वो मुबारक दिन ना जाने कहाँ अब खो से गये है
रोज़ जाते थे मंदिर और मस्जिद में हम तो क्या
नवाज़ते थे सर मगर निगाहें किसी को ढूँढती थी
ऐसा नहीं था के इश्क़ मैं सभी अच्छा ही अच्छा था
थी बर्बादियां भी कई मगर तब जूनून सच्चा था
आज़ाद था इश्क़ जब जिस्म की बन्दिशें नहीं थी
एक झलक देखकर यार की महीनों गुज़ार लेते थे
सुन्दर !