कविता

कविता : राही! चलना न छोड़ना

कड़ी धूप में, चल रहा है अकेला।

आँखों के सामने, हो रहा है अँधेरा।

मन चंचल, भारी हो रहा है तेरा।

राही! चलना न छोड़ना॥

चलते-चलते रूक गया अगर,

कहीं बैठकर आराम कर लिया अगर।

क्या तय कर पाएगा, अपनी मंजिल का सफर।

राही! चलना न छोड़ना॥

— विकाश सक्सेना

2 thoughts on “कविता : राही! चलना न छोड़ना

  • विजय कुमार सिंघल

    आपकी कविता शास्त्रों के ‘चरैवेति चरैवेति’ मन्त्र को याद दिला देती है. चलने का नाम ही जिंदगी है.

  • बहुत खूब .

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