मंज़िल
कभी कभी अजीब सा समां लगता है
सभी हैं ,
पर जाने क्यों
सूना सूना यह जहां लगता है
यूं तो न उम्मीद करते है
किसी से वादे ओ वफ़ा की
पर खोया खोया सा
दिल का कोई अरमाँ लगता है
काश कोई तो बता दे मुझको
कि क्यों भीगी आँखों में मुझको
सुखा सा रेगिस्तान लगता है
बिन उनके
लगता है कांटो भरा जंगल
और हो गर साथ उनका
तो पतझड़ भी गुलिस्तां लगता है
चाहत रखते नहीं
कभी तख्तो ताज की
हमें तो वीरान सड़क भी
महल आलिशान लगता है
बस एक बार
देख लें वो जलवाई नज़र से
उनका हर जलवा हमें
अपनी मंज़िल का कारवाँ लगता है।
वाह वाह !