यशोदानंदन-१५
नन्द बाबा और मातु यशोदा के नेत्रों से आनन्दाश्रु छलक रहे थे। समस्त गोकुलवासी भी आनन्द-सरिता में गोते लगा रहे थे। जिसे वे एक सामान्य गोप और अपना संगी-साथी समझते थे, वह परब्रह्म है, इसका रहस्योद्घाटन होते ही सभी अतीत में चले गए। कब-कब श्रीकृष्ण के साथ वे झगड़े थे, उसे खेल में हराया था या क्रीड़ा में ही असत्य संभाषण किया था, यह सोचकर सभी मन ही मन पश्चाताप में निमग्न हो गए। जो गोपियां मातु यशोदा को मक्खन चुराने और मटकी फोड़ने के किए नित्य उलाहने देती थीं, वे दोनों हाथों को बंद कर नेत्रों के सम्मुख श्रीकृष्ण को ला, बार-बार क्षमा-याचना करने लगीं। मातु यशोदा भी याद करने लगीं – कब-कब और कितनी बार उन्होंने अपने लाडले के कान उमेठे थे, उसकी पीठ पर धौल जमाई थी और रस्सी से बांधकर उसकी शैतानियों के लिए सजा दी थी । उनके नेत्रों से अश्रु-प्रवाह रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था। उपस्थित जन समुदाय का प्रत्येक व्यक्ति यही प्रार्थना कर रहा था –
“श्रीकृष्ण ! एक बार, सिर्फ एक बार और गोकुल चले आओ। हमें एकबार क्षमा मांगने का अवसर तो प्रदान करो।”
नन्द बाबा की आँखें भी गीली हो गई थीं। महर्षि गर्ग ने सबको अपना मन हल्का करने का अवसर दिया। कुछ समय के लिए उन्होंने अपनी वाणी को विराम दिया। नन्द जी के मन में एक प्रश्न देर से उथल-पुथल मचाये था। उचित अवसर प्राप्त होते ही उन्होंने महर्षि गर्ग को संबोधित किया –
“हे ऋषिवर! आपके श्रीमुख से यह सुनकर कि हमारा श्रीकृष्ण स्वयं श्रीविष्णु का अवतार है, परम आनन्द की अनुभूति हुई। हे महर्षि! कृपाकर श्रीकृष्ण से पूर्व श्रीविष्णु के अन्य अवतारों के विषय में संक्षेप में बताने का कष्ट करें। हम आपके सदैव ऋणी रहेंगे।”
महर्षि गर्ग मुस्कुराए। वे भी कृष्ण-भक्ति में आकण्ठ डूबे हुए थे। उन्होंने अत्यन्त सधे शब्दों में श्रीविष्णु के विभिन्न अवतारों का वर्णन किया-
“सृष्टि के आरंभ में भगवान के हृदय में लोकों के निर्माण की इच्छा उत्पन्न हुई। इच्छा होते ही उन्होंने महतत्त्व आदि से निष्पन्न पुरुष रूप ग्रहण किया। उस रूप में सोलह कलाएं, दस इन्द्रियां, एक मन और पांच भूत – एक साथ उपस्थित थे। उन्होंने कारण-जल में शयन करते हुए जब योग-निद्रा का विस्तार किया तो उनके नाभि-सरोवर में एक कमल प्रकट हुआ। उस कमल से प्रजापतियों के अधिपति ब्रह्मा जी उत्पन्न हुए। भगवान कि उस विराट रूप के अंग-प्रत्यंग में ही समस्त लोक समाहित हैं। वह भगवान का विशुद्ध सत्यमय सर्वश्रेष्ठ रूप है। योगी जन दिव्य दृष्टि से भगवान के उस रूप का दर्शन करते हैं। भगवान का वह रूप हजारों पैर, जंघाएं, भुजाएं और मुखों के कारण अत्यन्त विलक्षण है। उसमें सहस्त्रों सिर, हजारों कान, हजारों आँखें और हजारों नासिकाएं हैं। हजारों मुकुट, वस्त्र और कुण्डल आदि आभूषणों से युक्त वह सदैव उल्लसित रहता है। भगवान का यही पुरुष रूप जिसे नारायण कहते हैं, अनेल अवतारों का अक्षय कोष है – इसी से सारे अवतार प्रकट हुए हैं। इस रूप के छोटे से छोटे अंश से देवता, पशु-पक्षी और मनुष्य आदि योनि की सृष्टि होती है।
प्रभु ने पहले कौमार्गसर्ग में सनक, सनन्दन, सनातन और सनत्कुमार – इन चार ब्राह्मणों के रूप में अवतार ग्रहण करके कठिन अखंड ब्रह्मचर्य का पालन किया। दूसरी बार संसार के कल्याण के लिए समस्त योगों के स्वामी नारायण ने रसातल में गई पृथ्वी को निकाल लाने के लिए सूकर रूप में अवतार लिया। ऋषियों की सृष्टि में उन्होंने देवर्षि नारद के रूप में तीसरा अवतार ग्रहण किया और सात्त्वक तंत्र, जिसे ‘नारद पांचरात्र’ कहा जाता है, का उपदेश किया। नारद पांचरात्र में उन विधियों का विस्तार से वर्णन है जिसके सम्यक अभ्यास से यह जीव सदा के लिए कर्म-बंधन से मुक्त हो जाता है। धर्म-पत्नी मूर्ति के गर्भ से नर-नारायण के रूप में चौथा अवतार लिया। इस अवतार में उन्होंने ऋषि बनकर मन और इन्द्रियों का पूरी तरह संयम करके घोर तपस्या की। पांचवे अवतार में सिद्धि के स्वामी कपिल के रूप में प्रकट हुए। कपिल मुनि ने उस समय तक लुप्त हो चुके सांख्य शास्त्र की रचना की और इसे ‘आसुरि’ नामक ब्राह्मण को सुनाया।
ऋषि पत्नी अनुसूया द्वारा वर मांगने पर श्रीविष्णु उनके पुत्र के रूप में अवतरित हुए। अत्रि-अनुसूया के यशस्वी अवतार में उन्होंने अलर्क एवं प्रह्लाद आदि को ब्रह्मज्ञान का उपदेश दिया एवं पुत्र, दत्तात्रेय के नाम से संसार में विख्यात हुए। सातवीं बार रुचि प्रजापति की ‘आकूति’ नामक पत्नी से यज्ञ के रूप में उन्होंने अवतार ग्रहण किया और अपने पुत्र यम आदि देवताओं के साथ स्वयंभूव मनवन्तर की रक्षा की। राजा नामिकी की पत्नी मेरुदेवी के गर्भ से ऋषभदेव के रूप में उन्होंने आठवां अवतार ग्रहण किया। इस रूप में उन्होंने परमहंसों का वह मार्ग जो सभी आदमियों के लिए वन्दनीय है, दिखाया। ऋषियों की प्रार्थना पर नवीं बार वे राजा पृथु के रूप में अवतरित हुए। इस अवतार में उन्होंने संसार की सभी औषधियों का अन्वेषण किया। यह अवतार संपूर्ण मानव जाति के लिए अत्यन्त कल्याणकारी सिद्ध हुआ। चाक्षुष मनवन्तर के अन्त में जब तीनों लोक समुद्र में डूब रहे थे, उन्होंने मत्स्य के रूप में दसवां अवतार लिया और पृथ्वी रूपी नौका पर बैठाकर अगले मनवन्तर के अधिपति वैवस्वत मनु की रक्षा की। देवताओं और दैत्यों द्वारा समुद्र-मन्थन के समय भगवान ने कच्छप रूप में अवतार लेकर मन्दराचल को अपनी पीठ पर धारण किया।
बारहवीं बार धनवन्तरी के रूप में अमृत लेकर समुद्र से प्रकट हुए और तेरहवीं बार मोहिनी रूप धारण करके दैत्यों को मोहग्रस्त कर देवताओं को अमरता का अमृत पिलाया। चौदहवें अवतार में उन्होंने नरसिंह रूप धारण किया और अत्यन्त बलवान दैत्यराज हिरण्यकश्यपु की छाती को चीरकर भक्तवत्सल प्रह्लाद की रक्षा की। पन्द्रहवीं बार उन्होंने वामन अवतार लिया और तीन पग में सारा ब्रह्माण्ड नाप कर बलि का अहंकार नष्ट किया। दैत्यराज बलि को ‘महादानी’ की उपाधि उन्होंने दी। वचन की रक्षा के लिए उन्होंने बलि का द्वारपाल तक बनना स्वीकार किया। सोलहवें अवतार में उन्होंने परशुराम का रूप धरा और ब्राह्मणद्रोही अहंकारी तथा निरंकुश क्षत्रियों का इक्कीस बार पूर्ण संहार किया। सत्रहवीं बार देवताओं का कार्य संपन्न करने तथा महाबली रावण के अत्याचार से इस धरा को सदा के लिए मुक्त करने हेतु भगवान ने रामावतार लिया। महान ऋषियों और वेदों के प्रकाण्ड विद्वान सत्यवती-पुत्र व्यास उनके अट्ठारहवें अवतार है। श्री बलराम उस प्रभु के उन्नीसवें अवतार हैं और आपके लाडले श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण बीसवें अवतार हैं। इन दोनों ने अत्याचारी कंस का वध कर अपने अवतार का पहला महान कार्य किया है। इस सृष्टि पर और भी अनेक दुष्कर कार्य उन्हें संपन्न करने हैं। यह तो मात्र आरंभ है।”
बहुत अच्छी लेखन शैली !