प्रेम. उत्साह और नव अन्न का पर्व होली
फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन मनाये जाने वाले पर्व को होली के नाम से जाना जाता है। होली के अगले दिन चैत्र कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा को भी होली मनाते हुए अपने इष्ट-मित्रों व परिवारजनों के साथ एक दूसरे से मिल कर उन्हें कई प्रकार के रंग लगाने व परस्पर गीला रंग डालने, होली की शुभकामनायें देने व परस्पर मिष्ठान्न आदि से सत्कार करके मनाया जाता है।
भारत वर्ष की धर्म, संस्कृति व सभ्यता संसार में सबसे प्राचीन, सभ्य व मर्यादाओं से पूर्ण है। मनुस्मृति नाम का ग्रन्थ महर्षि मनु से सृष्टि के आरम्भ में लिखा था। इसमें उन्होंने लिखा है कि “एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। स्वं स्वं चरित्रं शिक्षरेन् पृथिव्यां सर्व मानवाः” अर्थात् यह आर्यावर्त्त देश संसार में विद्वानों, ज्ञानियों, विचारकों, चिन्तकों, वैज्ञानिकों व अभियन्ताओं का अग्रजन्मा है जहां विश्व भर के लोग आकर अपने-अपने अनुकुल चरित्र आदि की शक्षा ग्रहण करते हैं। महाभारत काल से कुछ समय पूर्व तक धर्म, संस्कृति व सभ्यता की यह निर्मल धारा अपने सत्य, यथार्थ व लोकोपकारी स्वरूप में बहती रही। इसके बाद इसमें कुछ विकार आने आरम्भ हो गये। महाभारत काल के बाद विकृतियों की यह प्रक्रिया तीव्र गति से बढ़ने लगी जिसका परिणाम भगवान बुद्ध व स्वामी महावीर का प्रादूर्भाव हुआ। इसके बाद स्वामी शंकराचार्य जी आये और उन्होंने नास्तिक मतों को पराभूत किया और पुनः वैदिक धर्म का शंखनाद किया परन्तु समाज में प्रविष्ट अज्ञान, अन्धविश्वास, कुरीतियां आदि दूर नहीं हुई अपितु यह पुनः तीव्रतर हो गईं। इसका परिणाम भारत के राजाओं की मुस्लिम आक्रान्ताओं से पराजय, राजाओं व क्षत्रियों की सामूहिक हत्यायें, क्षत्राणियों व स्त्रियों का स्वत्वहरण और उसके बाद अंग्रेजों की पराधीनता के रूप में हमारे पूर्वजों ने देखा और भोगा। ऐसे समय में ही होली का प्राचीन वैदिक स्वरूप विस्मृत कर देश व समाज ने वर्तमान स्वरूप को अपना लिया।
सम्प्रति फाल्गुन मास की पूर्णिमा के दिन लोग होली का व्रत आदि रखकर भोजन का त्याग कर शारीरिक तप करते हैं। सायंकाल व रात्रि में लकडि़यां इकट्ठा कर कुछ पौराणिक वा कुछ वेदों आदि के मन्त्रों से होलिका दहन करते हैं। जिन श्लोकों व मन्त्रों आदि को बोला जाता है उनकी विधि आदि का निर्माण विगत 100 से 200 या 300 वर्ष पूर्व होने का अनुमान है। इस दिन घरों में मिष्ठान्न के रूप में गुजियां आदि बनाई जाती है जिसका परिवार व इष्ट मित्रों द्वारा सेवन कर आनन्द लाभ किया जाता है। प्राचीन काल में इसका अत्यधिक महत्व था परन्तु वर्तमान समय में सामाजिक व व वैज्ञानिक उन्नति के कारण यह बातें कुछ कम महत्वपूर्ण हो गई प्रतीत होतीं हैं। होलिका-दहन से यह अनुमान होता है कि प्राचीन परम्परा के अनुसार जब नई यव व गेहूं की फसल पक कर लगभग तैयार होती थी तो उसके अन्न के दानों व होलकों से बड़े-बड़े सामूहिक यज्ञ करके ईश्वरीयेतर अग्नि, पृथिवी, वायु, जल, आकाश आदि देवताओं को आहुतियां दी जाती थी। इसके बाद ही नये अन्न का भक्षण, सेवन व भोग करने का कृषक व अन्य मनुष्यों को अधिकार होता था। इन बड़े यज्ञों का प्रतीकात्मक रूप ही वर्तमान के होलिका-दहन का आयोजन है।
होलिका दहन के अगले दिन लोग इस ऋतु परिवर्तन पर मनाये जाने वाले पर्व पर उत्साह व उमंग में भरकर अपने इष्ट-मित्रों, परिवार के छोटे-बड़े सदस्यों सहित अपने सभी पड़ोसियों को होली की बधाई और शुभकामनायें देते हैं। यह इसका एक अच्छा रूप है। दूसरों को शुभकामनायें व बधाई देना एक स्वस्थ सामाजिक परम्परा है। इसमें निहित भावना के अनुसार ही सभी का व्यवहार भी होना चाहिये। इससे निकटता बढ़ती है और परस्पर सहयोग से एक दूसरे के सुख व दुःख में सहायक होते हैं। इससे स्वस्थ समाज का निर्माण होता है। इसमें एक प्रकार से सेवा व परोपकार का भाव निहित है। ऐसा भी कहा जाता है कि इस पर्व पर लोग अपने पुराने मतभेदों को भुलाकर परस्पर गले मिलकर नये मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों की शुरूआत करते हैं। यह भी एक अच्छा सामाजिक कृत्य है। इसका विस्तार होना चाहिए परन्तु ऐसा देखा जाता है कि देश में वाद-विवाद कम होने के स्थान पर बढ़ रहे हैं जिसका कारण होली की परस्पर मैत्री भावना को सुदृण करने में कहीं कुछ कामियों का रह जाना है जिस पर विचार होना चाहिये। इस होली के दिन लोग प्रायः दिन के 1 या 2 बजे तक एक दूसरे को गुलाल लगाना, बधाई व शुभकामना देना, एक दूसरे के घरों पर जाकर गले मिलना व मिष्ठान्न आदि सेवन करना व करवाना आदि कार्यों को करते हैं। कई जगह एक स्थान पर आयोजन कर एक विभाग व कालोनी के लोग इकट्ठा होकर होली मिलन समारोह करते हैं। इस प्रकार से होली का पर्व हर्षोल्लास व धूमधाम से सम्पन्न हो जाता है।
आज व कल 5-6 मार्च, 2015 को होली मनाकर हम शीत ऋतु को भी विदाई देंगे और आगामी चैत्र व बैसाख महीनों का पूरे वर्ष भर के स्वास्थय आदि की दृष्टि से श्रेष्ठ महीनों का स्वागत करेंगे। अब निर्धन व अल्प साधन वाले हमारे भाईयों को ठण्ड से ठिठुरना नहीं पड़ेगा, ठण्ड से होने वाले रोगों से मुक्ति मिलेगी, स्वास्थ्य अच्छा रहेगा और शरीर की कार्यक्षमता में भी वृद्धि होने से यह पूर्व की तुलना में अधिक सुखदायक होगा। होली के शुभ अवसर पर इन विचारों को प्रस्तुत कर इस लेख को विराम देते हुए हम यह भी कहना चाहेंगे कि यह पर्व कुछ शुभ संकल्प लेने का भी है। इस अवसर पर मनुष्य को मदिरापान, मांसाहार, जुऐं, अमर्यादित आचरण से बचकर इन्हें त्यागने का व्रत लेना चाहिये और इसके साथ शुभ संकल्प के रूप में नियमित प्रतिदिन व्यायाम व प्राणायाम के साथ स्वाध्याय करने का व्रत भी लेना चाहिये। हम यह आवश्यक समझते हैं कि इस देश के प्रत्येक व्यक्ति को सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ को इसके लेखक की भावना के अनुरूप अर्थात् सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग का मानस बना कर पढ़नी चाहिये। इससे मनुष्य का आध्यात्मिक, सामाजिक व शारीरिक विकास निश्चित रूप से हो सकता है और इसका परिणामस्वरूप समाज व देश भी सुदृण होंगे तथा वैदिक धर्म व संस्कृति की रक्षा भी होगी। होली की सभी बन्धुओं को हार्दिक शुभकामनायें।
-मनमोहन कुमार आर्य
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बहुत अच्छा लेख !