आओ, ईश्वर की स्तुति और प्रार्थना करें
ईश्वर समस्त ऐश्वर्यों का स्वामी होने के कारण ही ईश्वर कहलाता है। जीवात्मा अल्पज्ञ, अल्प शक्ति व सामर्थ्यवाला है। अतः बुद्धि, ज्ञान, स्वास्थ्य, बल, शक्ति व ऐश्वर्य आदि के लिए ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना करना स्वाभाविक व आवश्यक है। महर्षि दयानन्द के आगमन से पूर्व संसार के लोग ईश्वर से क्या व कैसी प्रार्थना करनी चाहिये, प्रायः भूल चुके थे। उन्होंने गायत्री मन्त्र का प्रभावशाली अर्थ किया जो आज सारे विश्व में उपयोग में लाया जाता है। हम वर्षों पूर्व एक बार दिल्ली के एक पौराणिक मन्दिर में गये तो वहां गायत्री मन्त्र और उसका अर्थ लिखा देखा। हमें आश्चर्य हुआ कि हमारे पौराणिक मन्दिर में महर्षि दयानन्द जी का किया हुआ गायत्री मन्त्र का हिन्दी में अर्थ दिया हुआ है। महर्षि दयानन्द ने जहां सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, ऋ़ग्वेद-यजुर्वेद भाष्य, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ लिखे वहीं उन्होंने स्तुति व प्रार्थना का महत्व समझ कर “आर्याभिविनयः” नामक पुस्तक की रचना भी की। इसी पुस्तक में सबसे प्रथम दिये गये मन्त्र व उसके हिन्दी भावानुवाद को प्रस्तुत कर रहे हैं। इससे विदित होगा कि प्रार्थना क्या होती है व ईश्वर से प्रार्थना किस प्रकार करनी चाहिये। प्रार्थना विषयक ऋग्वेद 1/6/18/9 का यह मन्त्र निम्न हैः
ओें शं नो मित्रः शं वरूणः शं नो भवत्वर्य्यमा।
शं न इन्द्रो बृहस्पतिः शं नो विष्णुरूरूक्रमः।।
इस मन्त्र का वेदार्थ वा भावार्थ करते हुए महर्षि दयानन्द ने लिखा है – ‘हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव, हे अद्वितीयानुपमजगदादिकारण, हे अज, निराकार, सर्वशक्तिमन्, न्यायकारिन्, हे जगदीश, सर्वजगदुत्पादकाधार, हे सनातन, सर्वंगलमय, सर्वस्वामिन्, हे करूणाकरास्मत्पितः, परमसहायक, हे सर्वानन्दप्रद, सकलदुःखविनाशक, हे अविद्यान्धकारनिर्मूलक, विद्यार्कप्रकाशक, हे परमैश्वर्यदायक, साम्राज्यप्रसारक, हे अधर्मोद्धारक, पतितपावन, मान्यप्रद, हे विश्वविनोदक, विनयविधिप्रद, हे विश्वासविलासक, हे निरंजन, नायक, शर्मद, नरेश, निर्विकार, हे सर्वान्तर्यामिन्, सदुपदेशक, मोक्षप्रद, हे सत्यगुणाकर, निर्मल, निरीह, निरामय, निरुपद्रव, दीनदयाकर, परमसुखदायक, हे दारिद्रयविनाशक, निर्वैरविधायक, सुनीतिवर्द्धक, हे प्रीतिसाधक, राज्यविधायक, शत्रुविनाशक, हे सर्वबलदायक, निर्बलपालक, हे सुधर्मसुपापक, हे अर्थसुसाधक, सुकामवर्द्धक, ज्ञानप्रद, हे सन्ततिपालक, धम्र्मसुशिक्षक, रागविनाशक, हे पुरुषार्थप्रापक, दुर्गुणनाशक, सिद्धिप्रद, हे सज्जनसुखद, दुष्टसुताडन, गर्वकुक्रोधकुलोभविदारक, हे परमेश, परेश, परमात्मन्, परब्रह्मन्, हे जगदानन्दक, परमेश्वर, व्यापक, सूक्ष्माच्छेद्य, हे अजरामृताभयनिर्बन्धनादे, हे अप्रतिमप्रभाव, निर्गुणातुल, विश्वाद्य, विश्ववन्द्य, विद्वद्विलासक, इत्याद्यनन्तविशेषणवाच्य, हे मंगलप्रदेश्वर ! आप सर्वथा सब के निश्चित मित्र हो। हमे सत्यसुखदायक सर्वदा हो। हे सर्वोत्कृष्ट, स्वीकरणीय, वरेश्वर ! आप वरूण अर्थात सब से परमोत्तम हो, सो आप हमको परम सुखदायक हो। हे पक्षपातरहित, धर्मन्यायकारिन् ! आप अर्य्यमा (यमराज) हो इससे हमारे लिये न्याययुक्त सुख देने वाले आप ही हो। परमैश्वर्यवन् इन्द्रेश्वर ! आप हम को परमश्वर्ययुक्त शीघ्र स्थिर सुख दीजिये।
हे महाविद्यावायोधिपते, बृहस्पते, परमात्मन् ! हम लोगों को (वृहत) सब से बड़े सुख को देने वाले आप ही हो। हे सर्वव्यापक, अनन्तपराक्रमेश्वर विष्णो ! आप हमको अनन्त सुख देओ। जो कुछ हम मांगेंगे सो आप से ही मांगेंगे। सब सुखों को देनेवाला आप के बिना कोई नहीं है। सर्वथा हम लोगों को आप का ही आश्रय है, अन्य किसी का नहीं, क्योंकि सर्वशक्तिमान् न्यायकारी दयामय सब से बड़े पिता को छोड़ के अन्य किसी नीचे का आश्रय हम कभी न करेंगे। आप का तो स्वभाव ही है कि अंगीकृत को कभी नहीं छोड़ते सो आप सदैव हम को सुख देंगे, यह हमको दृढ़ निश्चय है।’
इस प्रार्थना में ईश्वर को सम्बोधन में जिन विशेषणों का प्रयोग किया गया है वह अपूर्व है जो हृदय को ईश्वर को श्रद्धा से भर देते हैं। हम समझते हैं कि पाठक इस मन्त्र व्याख्या से प्रसन्नता वह आह्लाद् का अनुभव करेंगे।
कई बार हम ईश्वर से प्रार्थना करते है परन्तु वह पूरी नहीं होती। इससे हमें दुःख पहुंचने के साथ ईश्वर के प्रति आस्था व विश्वास में न्यूनता उत्पन्न होती है। हमारी प्रार्थना पूरी न होने के कई कारण हो सकते हैं। हमारी पात्रता में कमी हो सकती है। हम जो मांग रहे हैं, यह आवश्यक नहीं कि वह हमारे हितकर ही हो। महर्षि दयानन्द ने यह भी लिखा है कि हम ईश्वर से जिस प्रकार की प्रार्थना करें उसके अनुरुप आवश्यक मात्रा में कर्म या पुरुषार्थ भी अवश्य करें। यदि हम ऐसा करते हैं तो देर-सवेर प्रार्थना अवश्य पूरी होती है। हम आशा करते हैं कि उपर्युक्त वेद मन्त्र के अनुसार भाषा में की गई प्रार्थना पाठको को पसन्द आयेगी और वह आर्याभिविनयः ग्रन्थ को प्राप्त कर उसका अध्ययन कर लाभ उठायेंगे।
–मनमोहन कुमार आर्य
अत्यंत श्रेष्ठ जानकारी पूर्ण लेख ! स्वामी जी का यह वाक्य मननीय है- हम जो भी प्रार्थना करें, उसके अनुरूप कर्म या पुरुषार्थ भी अवश्य करें। बहुत से लोग बिना कुछ प्रयास किये सफलता पाने के लिए प्रार्थना करते हैं, जो ग़लत है।
आपकी टिप्पणी आनंद से पूर्ण है. मैं ह्रदय से आपका आभार एवं धन्यवाद करता हूँ। सादर निवेदन है कि यदि कभी अवसर मिले तो “आर्याभिविनय” पुस्तक पढ़ने का कष्ट करें।
मनमोहन जी , लेख बहुत बढिया लगा.
नमस्ते आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। हार्दिक धन्यवाद। आपकी टिप्पणी जो प्रसन्नता देती है, उसका शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता।