कविता

चाहता है !

देखना चाहता है
समाज आज भी
नारी को बस
खूंटे पर बंधी गाय !
पालतू पशु,
पिंजरे में कैद,
पंछी के पर कटे
घर में पड़े बेजान
सामान सा!
चाहता है पुरुष
साड़ी में लिपटी
मुंह छिपाये
आंखें शर्म से झुकीं,
सेवा में लिप्त,
जुर्म किये हुए
कैदी सी कैद !
बेजुबान बेचारी सी
चार दीवारी में बेजान मुर्दे सा !
पुरुष का अहम अभी भी
कहां टूट पाया है !
वो बस थोड़ा सा झुक गया है!
क्योंकि औरत ने सीख लिया है
बिना पुरुष के सहारे
खड़ा होना, चलना!

3 thoughts on “चाहता है !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    भारत के लोगों की वहीँ पुरानी सोच को बेहतरीन लफ़्ज़ों में बिआं कर दिया .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत गहरे भाव लिये हुए बेहतरीन कविता !

  • रमेश कुमार सिंह

    वाह ! क्या बात है बहुत सुंदर।

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