स्त्री
रसोई से उठते,
घी के धुँये सी सुबह,
दीपक की लौ सी जलती शामें!
भाव का दीप प्रज्जवलित कर,
खुद को ही खडा कर लेती हूँ,
भगवान के आगे!
दिन की वीरानी जब ,
साँय -साँय कर कानों को,
भेदती हैं!
तब सोचती हूँ,
जीवन का ये कौनसा पक्ष है,
खुद होकर भी ,
अपना वजूद न होना!
बंधनों में बँधी “स्त्री”
किसी कठपुतली से कम ,
नहीं आँक पाती, स्वयं को!
जिनकी खातिर होम दिया,
पूरा जीवन,
मिटा दिया खुद को!
प्रत्युत्तर में जब , सुनने मिलता है!
बहुत जुबान चलती है,
कुछ सुनना सीखो,
कितनी बहस करती हो!
रात के सन्नाटे भी
शोर करते,
प्रतीत होते है!
लगता है,
कानों की,
सहन शक्ति अब,
जबाब दे रही है!
…राधा श्रोत्रिय”आशा” २५-०१-२०१५
जिस दिन महलाओं का सम्मान होने लगेगा , समाज में शान्ति हो जायेगी लेकिन बहुत दफा देखा है कि नारी , नारी की ही दुश्मन बन जाती है . सास का बहु से बुरा वर्ताव , ननद का भाभी के साथ नारी को इस उलझन से उठने नहीं देता .
वाह वाह !
बहुत खुब वाह!