यशोदानंदन-२०
छः महीनों में ही श्रीकृष्ण घुटनों के बल मकोइया बन पूरे आंगन में विचरण करने लगे। चलते समय वे किलकारी मारना नहीं भूलते थे। भांति-भांति के मणियों से जड़ित समुज्ज्वल आंगन में अपने ही प्रतिबिंब को पकड़ने के लिए इधर से उधर दौड़ लगाते, कभी सिर झुका उसे चूमने का प्रयत्न करते, तो कभी तोतली आवाज में उससे कुछ कहते। मातु यशोदा श्रीकृष्ण की प्रत्येक गतिविधि पर दृष्टि रखतीं। उनका हृदय अपने लाल की बालसुलभ क्रीड़ाओं को देख आनन्द-सागर में आठों पहर गोते लगाते रहता। कभी-कभी गोद में उठाकर कुहनी, घुटने, हथेली और पैर में लगी धूल को साफ करतीं और देर तक बाक कृष्ण के अलौकिक सौन्दर्य को निहारतीं। कभी-कभी श्रीकृष्ण से बातें भी करतीं –
“मेरे लाल! मैं तेरे अपूर्व सौन्दर्य पर बलिहारी जाती हूँ। घुंघराली लटें, तन को विमोहित कर देने वाली मुस्कुराहट और ललित नेत्रों पर धनुषवत् कुटिल भौहें कितनी मोहक हैं! कमर में किंकिणी, मस्तक पर चन्द्रिका तथा मणियों से जड़े हुए लटकन तेरी सुन्दरता के आगे फीके हैं। तू तो बिना किसी आभूषण के ही जग को मोहने वाला है। कही तुझे मेरी ही नजर न लग जाय। मैं तुझे आज ही शेर के नाखून से जड़ित ताबीज पहनाऊंगी।”
श्रीकृष्ण अपनी मस्ती में विचरण करते। माता की गोद से उतरकर पुनः अपने अभियान में लग जाते। हाथों में कंकण, चरणों में नूपुर और शरीर पर पीतांबर सुशोभित होते। अक्सर उनके श्रीमुख पर माखन की शोभा भी दृष्टिगत होती।
एक दिन श्रीकृष्ण को भोजन कराते समय माता ने श्रीकृष्ण के मुंह में आए परिवर्तन को लक्ष्य किया। दूध की दो दंतुलियां दाढ़ के बाहर आने का उपक्रम कर रही थी। वे बाल कृष्ण के भोले-भाले मुख को देखकर प्रमुदित हो रही थीं। वही से नन्द जी के लिए आवाज लगाई – अजी सुनते भी हो? तनिक पास आकर अपने लाड़ले को तो देखो। इसकी छोटी-छोटी दूध की दंतुलियों को तो देखो। दौड़ के आओ और अपने नेत्रों को सफल करो।”
नन्द जी अविलंब उपस्थित हुए। बालक के भोले-भाले मुखमंडल और दूध की दंतुलियों को देखा। ऐसा अनुपम सौन्दर्य सृष्टि में इसके पूर्व भी किसी ने देखा था क्या? दोनों बालकृष्ण को देख अभिभूत थे। चाहे जितना देखें, अतृप्ति बढ़ती ही जा रही थी। दोनों स्नेह-वात्सल्य से अभिभूत थे। श्रीकृष्ण की दंतुलियों को देख ऐसा लग रहा था जैसे कमल के पुष्प पर विद्युत ने अपना स्थाई निवास बना लिया हो।
बालक के शरीर में आया एक छोटा सा परिवर्तन भी एक बड़े उत्सव का कारण बन जाता। श्रीकृष्ण के मुख में दंतुलियों का आविर्भाव और उनके छः माह का होने का शुभ दिन एक साथ आया। फिर क्या था। माता ने श्रेष्ठ ब्राह्मणों से पूछ अन्नप्राशन का दिन निश्चित कर दिया। मातु की सखी-सहेलियों ने मंगल-गान किया। युवतियां अति उत्साह में भरकर नृत्य करने लगीं। व्रज के घर-घर में आनन्द का प्रवाह बह निकला। व्रज की प्रत्येक वनिता में बाल कृष्ण को गोद लेकर, प्यार करने की होड़-सी लगी हुई थी।
देखते ही देखते कृष्ण मुरारी एक वर्ष के हो गए। एक महोत्सव पुनः मनाया गया। गोप-गोपियों में वही आनन्द. वही उत्साह और वही उमंग। प्रत्येक मार्ग पर शृंगार के साथ गोपियों की टोलियां ही दृष्टि-पथ में आ रही थीं। मंगलकारी गीतों को सुमधुर स्वर में गाते हुए आनन्द और उत्साह से वे नन्द भवन की ओर अग्रसर हो रही थीं। वे सोने की मणिजड़ित थालों में दही, रोली और फल-फूल सजाकर कन्हैया को तिलक लगाने और मिलने के लिए आतुर थीं। निर्धारित समय के पूर्व ही नन्द भवन के परिसर में व्रजवासियों का मेला लग गया। सभी ने श्रीकृष्ण के माथे पर तिलक लगाया, बलैया ली और शुभकामनायें तथा आशीर्वाद दिए। बाल कृष्ण को किसी की नजर न लगे, इस निमित्त सभी ने तृण तोड़ा।
श्रीकृष्ण का डगमगाते पैरों से चलने का उपक्रम करना मातु यशोदा के लिए चन्द्रमा के सीधे धरती पर उतर आने से कम आश्चर्यजनक और सुखदायक नहीं थ। जब कन्हैया डगमगाते हुए धरती पर पैर रखते, तो अनायास वे अपने हाथ से उनका हाथ पकड़ लेतीं – कही उनका लाल लड़खड़ाकर गिर न जाय, कही चोट न लग जाय। मन ही मन आँख मूंदकर मनौती मांगतीं – हे कुलदेवता! मेरा कुंवर कन्हाई चिरंजीवी हो! कभी वे बलराम को पुकारतीं और कहतीं – तुम दोनों भाई इसी आंगन में एकसाथ खेलो। उन्हें बलदाऊ पर बहुत भरोसा था। शरारत करना श्रीकृष्ण के हिस्से में रहता और अपनी उम्र से अधिक परिपक्व बलराम के हिस्से में रहता – श्रीकृष्ण की सुरक्षा।
शीघ्र ही कन्हैया ने चलना सीख लिया। ठुमक-ठुमक कर चलने वाले श्रीकृष्ण की शोभा ही न्यारी थी। नन्द जी और मातु यशोदा एक-एक पल को अपने नेत्रों में समेट लेना चाहते थे। सभी देखने वाले आत्म मुग्धता की स्थिति प्राप्त कर लेते। पांवों के नूपुर, कमर की कमरधनी में बंधे लटकन तथा हाथ के कंकण से निकली संगीतमय ध्वनि को सुन सभी वारि-वारि जाते। चलते-चलते बालक ने कब दौड़ना सीख लिया, कुछ समझ में नहीं आया। कन्हैया के लिए आंगन छोटा पड़ने लगा। वे बार-बार देहरी की ओर भागते, परन्तु देहरी लांघ नहीं पाते, गिर जाते, फिर खड़े होते, पुनः-पुनः प्रयत्न करते।
श्रीकृष्ण ने अपने पैरों पर चलना क्या आरंभ किया, मातु यशोदा का चैन ही छीन लिया। घर की कोई वस्तु अपने स्थान पर नहीं मिलती। खिलौनों से खेलते कम, फेंकते ज्यादा। यशोदा जी के सौन्दर्य-प्रसाधन हों या नन्द जी की माला, कन्हैया के हाथ में आते ही बिखर जाते। भोजन कराने में मातु के पसीने छूट जाते। जो कान्हा माता की गोद में लेटकर चुपचाप दूध पी लेता था, माखन खा लेता था, अब वह इसी काम के लिए मातु को दिन भर दौड़ाया करता था। हाथ में कटोरा ले माता जोर-जोर से आवाज लगाती रहतीं – मेरे प्राणधन! तनिक रुक तो सही। एक कौर तो खा ले। नहीं खायेगा, तो हृष्ट-पुष्ट कैसे होगा? कान्हा तनिक रुकते, माता के हाथ से एक कौर खाते और पुनः छिटककर दौड़ने लगते। किसी प्रकार की जबर्दस्ती करने पर रो-रोकर सारा घर सिर पर उठा लेते। नन्द जी और सारे सेवक-सेविकाएं कान्हा को घेर यशोदा से कारण बताने की प्रार्थना करते। रुआंसी मैया क्या कारण बतातीं? कटोरा ले आंगन में चुपचाप बैठ जातीं। कान्हा माता को उदास देख पुनः गोद में चढ़ जाते। माता उन्हें एक कौर और खिलातीं। कृष्ण बंधन्मुक्त हो जाते। खिलखिलाते हुए वे माँ को देखते। माँ सबकुछ भूल निहाल हो जातीं।
कृष्ण की बाल लीलाओं का बहुत सुंदर वर्णन किया है!
बहुत खूब .