यशोदानंदन-२१
मातु यशोदा! अपनी स्मृतियों पर तनिक जोर डालें। श्रीकृष्ण के शिशु-काल की शरारतों को याद कीजिए। क्या कोई सामान्य बालक ऐसी लीला कर सकता था? जिसे आप सिर्फ अपना पुत्र समझती हैं, वह जगत्पिता है। याद कीजिए – श्रीकृष्ण को ओखल से बांधने में आपको किन-किन अवस्थाओं से गुजरना पड़ा था –
मातु यशोदा के समय का अधिकांश श्रीकृष्ण की परिचर्या में बीतता। वह शिशु उन्हें स्वयं के कार्य के लिए समय ही नहीं देता था। घर में वैसे भी ढेर सारे कार्य पड़े रहते थे। एक बार दासी को किसी दूसरे काम में व्यस्त देख माता स्वयं दही मथने लगीं। उनके मुख से श्रीकृष्ण की बाल लीलायें गीत के रूप में प्रस्फुटित होने लगीं और वे भी उन्हें याद करके आनद सागर में गोते लगाने लगीं। श्रीकृष्ण उस समय सो रहे थे। इसका लाभ लेकर माता अपने कार्य निपटा रही थीं। अचानक नन्दलाला की आँखें खुल गईं। माता के पास आ उन्होंने आंचल खींचना आरंभ किया। साथ ही आँखों से यह उपालंभ भी देना नहीं भूले – माते! मुझ भूख लग रही है और तुम दही मथ रही हो? माता बालक के एक-एक अंग की भाषा समझती है। मातु यशोदा ने दही मथना छोड़ झटपट बालक को उठाया, आंचल से ढंका और दुग्धपान कराना आरंभ कर दिया। वे दूध भी पिलातीं, शिशु के कपोलों को अपनी कोमल ऊंगलियों से सहलातीं और दमकते मुख का सौन्दर्य देख हर्ष से अभिभूत हो जातीं। वे सबकुछ भूलकर इन स्वर्णिम पलों का आनन्द ले रही थीं कि सहसा आग पर चढ़ा दूध उफनने लगा। माता को अपनी गलती का भान हुआ। उन्हें चूल्हे से दूध उतारकर ही शिशु को दुग्धपान कराना चाहिए था। श्रीकृष्ण को गोद से उतारकर उन्होंने शीघ्र ही एक ओर बिठाया और दूध उतारने चूल्हे के पास चली गईं। माता द्वारा शिशु की उपेक्षा! अभी तो बालक ने पेट भरकर दुग्धपान भी नही किया था। क्रोध आना स्वभाविक था। हाथ में एक कंकड़ी उठाई और कर दिया प्रहार मक्खन से भरी एक मटकी पर। मटकी तो जैसे टूटने कि प्रतीक्षा ही कर रही थी। कान्हा ने पहले जी भरकर मक्खन स्वयं खाया और शेष मक्खन बंदरों को खिलाना आरंभ कर दिया। उफनते दूध को उतारकर जब माता पूर्वस्थान पर पहुंचीं, तो श्रीकृष्ण नदारद। वे तो आंगन में बंदरों को मक्खन खिला रहे थे और स्वयं भी खा रहे थे। एक ओखल उल्टा करके रखा हुआ था। उसी पर शाही अन्दाज में बैठ चौकन्नी निगाहों से चारों ओर देख भी रहे थे। माता ने जब यह दृश्य देखा, तो क्रोध से लाल हो गईं। एक छड़ी उठाई और चल दीं शिशु को दंडित करने। वे श्रीकृष्ण के पीछे पहुंच पातीं, इसके पूर्व ही उन्होंने मातु को देख लिया। आँखों में कृत्रिम अश्रु भरकर माता को निहारा। मातु यशोदा ने जैसे ही छड़ी उठाकर मारने का उपक्रम किया, शिशु आंगन के दूसरे कोने में पहुंच गया। माता शिशु का पीछा करतीं, बालक दूने वेग से बचने के लिए भागता। लंबे समय तक यह लीला चलती रही। वे बालक का स्पर्श भी नहीं कर पा रही थीं। उन्होंने अपनी गति बढ़ाई। आंचल वक्ष से हटकर हवा में लहराने लगा, केशराशि बिखर गई, उनमें लगे पुष्प धरती पर गिर पड़े और सांस फूलने लगी। उन्होंने प्रयास फिर भी न छोड़ा। माता की यह स्थिति भला श्रीकृष्ण कैसे देख सकते थे? उन्होंने अपनी गति धीमी कर दी। माता श्रीकृष्ण के समीप पहुंच गईं और पूरी शक्ति से उन्हें पकड ही लिया। रुआंसे श्रीकृष्ण कातर नेत्रों से माता का मुंह देख रहे थे, मानो कह रहे हों – क्षमा कर दो माँ। अब ऐसी गलती पुनः नहीं होगी। माता बालक की आँखों मे कभी आंसू देख सकती है क्या? मातु ने बालक का भय दूर करने हेतु उसे कसके अपनी छाती से चिपका लिया। परन्तु बालक को दंड देने का निर्णय उनके मन में अटल रहा। श्रीकृष्ण कोई और शरारत न करें इसलिए उन्होंने पास पड़े ओखल के साथ उन्हें बांधने का निर्णय लिया।
लेकिन यह क्या? वे बांधने का जितना प्रयास करतीं सब असफल हो जाते। घर की सारी रस्सियां एकत्र करके बांधने का उपक्रम किया, लेकिन वह भी असफल। हर रस्सी दो अंगुल छोटी पड़ जाती। माता विस्मय से कभी बालक को देखतीं, तो कभी रस्सियों को। जिसका न आदि है, न अन्त, न वाह्य, न अभ्यन्तर, उस अनन्त को बांधने की किस पाश में क्षमता है? परन्तु माता तो अपने शिशु को अपना नन्हा-मुन्ना ही समझ रही थीं। वे एकबार फिर थक कर चूर हो गईं। उन्हें पसीना आ गया और शीश की माला धरती पर गिर पड़ी। श्रीकृष्ण ने बंध जाने का निर्णय ले लिया। माता ने उन्हें ओखल से बांध दिया और अपने दैनिक गृह-कार्य में रम गईं।
आंगन में दो वृक्ष लगे थे यमलार्जुन के। बालक श्रीकृष्ण को ओखल से बांध माता निश्चिन्त हो गई थीं। लेकिन सदा सक्रिय रहनेवाले श्रीकृष्ण को चैन कहां? वे घुटनों के बल आंगन में विचरण करने लगे। आगे-आगे श्रीकृष्ण, पीछे-पीछे ओखल। श्रीकृष्ण यमलार्जुन के दो पेड़ों के बीच से होते हुए आगे निकल गए। परन्तु बिचारा ओखल वृक्षों में फंस गया। श्रीकृष्ण ने तनिक बल का प्रयोग क्या किया कि दोनों वृक्ष धड़ाम से पृथ्वी पर गिर पड़े। दोनों जड़-मूल से उखड़ गए थे। लेकिन यह क्या? श्रीकृष्ण के सम्मुख दो सुदर्शन युवक खड़े थे – अग्नि के समान तेजस्वी। सारी दिशाएं प्रकाशित हो उठीं। दोनों ने बालकृष्ण के सामने मस्तक नवाया और स्तुति की –
“हे श्रीकृष्ण! हे योगेश्वर! यह दृश्य जगत आपकी ही उन शक्तियों का विस्तार है, जो कभी प्रकट होती हैं और कभी अप्रकट होती हैं। आप समस्त प्राणियों के जीवन, शरीर तथा इन्द्रियों के आदि दाता हैं। आप सर्वव्यापी, शाश्वत, नियामक, नित्य काल, साक्षात्विष्णु हैं। हे भगवान वासुदेव! हम आपके चरणों में सादर प्रणाम करते हैं। हे प्रभु! हमारे पिता कुबेर आपके दास हैं। इसी प्रकार देवर्षि नारद आपके दास हैं। यह उन्हीं की अहैतुक कृपा है कि हमें आपके साक्षात दर्शन प्राप्त हो सके। हम प्रार्थना करते हैं कि आप हमें आशीर्वाद देने का कष्ट करें कि हम दोनों भ्राता आपकी ही महिमा का कथन करते तथा आपकी दिव्य कार्यकलापों का श्रवण करते हुए जीवन भर आपकी दिव्य भक्ति में रत रहें। हमारे हाथ तथा अन्य अंग आपकी सेवा में रत रहें और हमारे चंचल मन स्थिर होकर आपके चरण-कमलों में केन्द्रित रहे। हम सौ वर्षों से वृक्ष बन जड़ता को प्राप्त थे। आपने अपनी श्रीकृपा से हमारा उद्धार किया, हमें नवजीवन प्रदान किया। हे देवाधिदेव! हमारे कोटिशः प्रणाम स्वीकार करें। अन्तर्यामी श्रीकृष्ण ने मन्द स्मित के साथ दोनों की प्रार्थना स्वीकार कि। उन्होंने संबोधित करते हुए कहा –
“मुझे ज्ञात है कि तुम दोनों देवताओं के कोषाध्यक्ष यशस्वी कुबेर के पुत्र नल-कूवर तथा मणिग्रीव हो। तुम दोनों देव कुल के अद्वितीय सौन्दर्य तथा ऐश्वर्य के कारण उत्पन्न गर्व की गर्हित स्थिति के कारण उच्छृंखल हो गए थे। तुम दोनों ने मदिरा और स्त्री को ही सुख का साधन मान लिया था। तुम लोगों ने कैलाश स्थित भगवान शिव के उद्यान में प्रविष्ट हो, अनुशासन का उल्लंघन किया था। मदिरा के नशे में तुम दोनों ने पवित्र मंदाकिनी में जलक्रीड़ा कर रहीं युवतियों से कामक्रीड़ा की अभिलाषा के साथ निर्वस्त्र हो जल में प्रवेश किया था। तुमलोग यह भूल गए थे कि तुम यशस्वी देव कुबेर के पुत्र हो। तुमदोनों इतने अधिक मदोन्मत्त थे कि तुम्हें उस स्थान पर देवर्षि नारद के आगमन का भान ही नहीं रहा। युवतियों ने देवर्षि को देख लिया। वे बिना विलंब किए जल से बाहर निकल आईं और किनारे पड़े वस्त्रों से अपना तन ढंक लिया। तुम लोगों ने देवर्षि नारद की उपस्थिति पर ध्यान ही नहीं दिया और निर्वस्त्र ही युवतियों का मनुहार करते रहे। तुम्हारी उस पतित अवस्था को देख नारद जी ने तुम दोनों के कल्याण के लिए ही यमलार्जुन वृक्ष के रूप में जड़ हो जाने का शाप दिया। उनके शाप की अवधि सौ वर्ष की थी। आज उनके शाप की अवधि के पूरी होने के पश्चात् मैंने तुम दोनों को मुक्त किया। हे नल-कूवर तथा मणिग्रीव! तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति उत्कृष्ट प्रेम उत्पन्न हो चुका है। अतः तुम्हारा जीवन सफल हो चुका है। इस संसार में तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है। तुम अपने पिता के धाम को जा सकते हो।”
नल-कूवर तथा मणिग्रीव ने श्रीकृष्ण की परिक्रमा की, पुनः-पुनः प्रार्थना की और स्तुति करते हुए पिता के धाम के लिए प्रस्थान किया।
रोचक !