आर्य समाज सत्य-ज्ञान से पूर्ण एक वैश्विक धार्मिक संस्था
आर्य समाज ईश्वर प्रदत्त, संसार के सबसे प्राचीन, सत्य-ज्ञान व तर्क पर पूर्णतया आधारित वैदिक धर्म का विश्व में प्रचार-प्रसार करने वाली अपनी तरह की एकमात्र वैश्विक धार्मिक, सांस्कृतिक एवं सामाजिक संस्था है। अन्य देशी व विदेशी संस्थायें जो संसार में अपने-अपने धर्म व मतों का प्रचार करती हैं, वह अज्ञान व अन्धविश्वासयुक्त होने के कारण आर्य समाज की तुलना में अत्यन्त हेय हैं। आज के वैज्ञानिक युग में यदि कोई धर्म या मत लोगों की इच्छाओं व आकांशाओं के साथ उनके प्रत्येक प्रश्न का ज्ञान व तर्कपूर्ण वैज्ञानिक समाधान कर सकता है तो वह केवल आर्य समाज वा महर्षि दयानन्द प्रतिपादित वैदिक धर्म ही है। आर्य समाज के 10 नियमों में तीसरा नियम है- “वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना पढ़ाना और सुनना सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।“ इसका अर्थ हुआ कि वेद में सभी सत्य विद्यायें अर्थात् ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य स्वरूप, इनके कार्य, उपयोगिता व अवस्थान्तर आदि स्थितियों का सत्य-सत्य ज्ञान है। इसके साथ हि धर्म, मनुष्यों के कर्तव्यों व जीवनशैली आदि का यथार्थ ज्ञान वेदों से प्राप्त होता है। आर्य समाज की स्थापना महर्षि दयानन्द सरस्वती ने 10 अप्रैल, सन् 1875 को मुम्बई के गिरिगांव मोहल्ले के काकड़वाडी स्थान में की थी। महर्षि दयानन्द को आर्य समाज की स्थापना की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसका उत्तर है कि उनके समय में ईश्वर, जीव व प्रकृति का सत्य स्वरूप व इनके विविध धर्म व व्यवहार आदि देश व विश्व में दृष्टि से ओझल हो चुके थे और सभी लोग अज्ञान व अन्धविश्वासों से ग्रसित होकर अपने जीवन के उद्देश्य से भटके हुए थे जिस कारण से वह सब नाना प्रकार के दुःखों से ग्रसित थे। अतः सत्य के ज्ञानी महर्षि दयानन्द ने अपने गुरू स्वामी विरजानन्द जी के परामर्श वा आज्ञा का पालन करने के लिए देश व संसार से अज्ञान व अन्धविश्वास आदि को मिटाने के लिए आर्य समाज की स्थापना की थी।
महर्षि दयानन्द ने सन् 1863 में मथुरा में गुरू विरजानन्द सरस्वती जी से वेद व्याकरण का अध्ययन पूरा कर कर्म क्षेत्र में पदार्पण किया था। आर्य समाज की स्थापना तक वह प्रायः मौखिक प्रचार, उपदेश-प्रवचन-शंका समाधान-वार्तालाप आदि के द्वारा ही वेदों का सन्देश प्रचारित करते थे। समस्त देश व विश्व में अज्ञान व अन्धविश्वास अपने चरम पर होने के कारण उनको असत्य, अज्ञान व अन्धविश्वासों आदि का खण्डन करना पड़ता था। इस खण्डन के साथ आप खण्डित मान्यताओं व सिद्धान्तों के विपरीत सत्य वैकल्पिक मान्यतायें व सिद्धान्तों का श्रोताओं को उपदेश भी करते थे। वह जो बोलते थे उसका एक एक शब्द महत्वपूर्ण होने के कारण संग्रहणीय होता था परन्तु खेद है कि उनके सभी प्रवचनों का संरक्षरण न हो सका। स्वामी दयानन्द के उपदेशों को सुनकर श्रोताओं को धर्म-ज्ञान व विविध लाभ तो अवश्य होते थे परन्तु समय व्यतीत होने के साथ प्रवचनों आदि का प्रभाव कुछ कम होकर व उनके उपदेशों में कही गई अधिकांश बातों की विस्मृति हो जाया करती थी। अतः मई, 1874 में महर्षि दयानन्द द्वारा काशी में उपदेश करते हुए यहां के डिप्टी कलक्टर राजा जयकृष्ण दास ने उनसे कहा कि महाराज ! आप जो प्रवचन करते हैं वह बहुत महत्वपूर्ण होते हैं। उनकी रक्षा होनी चाहिये जिससे इनका लाभ वह लोग भी उठा सकें जो किन्हीं कारणों से आपके उपदेशों में सम्मिलित नहीं हो सकते हैं। इसके अतिरिक्त उपदेश सुनने के कुछ समय बाद वह श्रोताओं की स्मृति से अंशतः विस्मृत हो जाते हैं। अतः उन्होंने महर्षि दयानन्द को अपनी मान्यताओं व सिद्धान्तों का एक सारगर्भित ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा दी। महर्षि दयानन्द को उनका यह सुझाव पसन्द आया और उन्होंने उसे तत्काल स्वीकार कर लिया। आगे हम देखते हैं कि महर्षि दयानन्द ने ‘सत्यार्थ प्रकाश’नाम के एक ग्रन्थ का लेखन आरम्भ करा दिया। यह ग्रन्थ तैयार होकर सन् 1875 में प्रकाशित हुआ जिसमें वेदों की शिक्षाओं, मान्यताओं व शिक्षाओं सहित उपनिषद, दर्शन, मनुस्मृति आदि अनेकानेक ग्रन्थों के उद्धरण दिये गये हैं तथा गूढ़ विचारों, सिद्धान्तों व मान्यताओं को प्रचलित सरल हिन्दी भाषा में प्रस्तुत किया गया है जिसे एक साधारण हिन्दी भाषा पठित व्यक्ति भी आसानी से जान व समझ सकता था। इसके बाद समय-समय पर ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, संस्कार विधि, आर्याभिविनय, गोकरूणानिधि, व्यवहारभानु आदि अनेक ग्रन्थ प्रकाशित होते रहे। इससे पूर्व धार्मिक सिद्धान्तों व मान्यताओं को समझने की यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी। अतः सत्यार्थ प्रकाश के प्रकाशन से धर्म व वेद प्रचार के क्षेत्र में एक युगान्तरकारी कार्य सम्पन्न हुआ। आज देश विदेश के आर्य समाजियों व नये सदस्यों का मुख्य आधार यही ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश होता है
आर्य समाज की स्थापना के बाद देश भर में आर्य समाज की इकाईयां स्थापित होने लगी। आर्य समाज के अनुयायियों सहित विद्वानों की संख्या में भी वृद्धि होती रही और देश भर में आर्यसमाज मन्दिरों में सन्ध्या व हवन सहित आर्य विद्वानों के वेद प्रवचन व शंका समाधान आदि होते रहे। वेद भाष्य सहित नये-नये ग्रन्थों का सृजन व प्रकाशन हुआ तथा आर्य समाजों ने स्थान-स्थान से हिन्दी व उर्दू भाषा में पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी किया। विपक्षियों व विधर्मियों से शास्त्रार्थ एवं वार्तालाप आदि भी होते थे। इन शास्त्रार्थों की श्रृंखला का आरम्भ महर्षि दयानन्द के नवम्बर, 1869 में वेदों में मूर्तिपूजा विषय पर काशी के दिग्गज लगभग 30 शीर्षस्थ विद्वानों से अकेले किये गये शास्त्रार्थ से होता है जिसमें महर्षि दयानन्द का पक्ष अकाट्य रहा। 30 अक्तूबर, 1883 तक लगभग 59 वर्षों से कुछ कम अवधि के अपने जीवन काल में महर्षि दयानन्द ने देश भर में विपक्षियों से अनेक शास्त्रार्थ, शंका समाधान व वार्तालाप के द्वारा लोगों की धर्म सम्बन्धी जिज्ञासाओं का समाधान किया। राजे-रजवाड़ों को धर्म उपदेश से उपकृत किया। देश के सभी मतों के विद्वानों व विशिष्ट पुरूषों से मिलकर उन पर वेदों की महत्ता का स्वरूप उद्घाटित किया। बहुत से लोगों ने अपना पूर्व मत वा धर्म त्याग कर वैदिक धर्म को स्वीकार किया। ऐसे अनेक उदाहरण सभी प्रमुख मतों से जुड़े हुए हैं।
देश भर में प्रचार कार्य सुगमता से चल रहा था। हमारे विद्वानों का ध्यान वेद मन्त्र ‘‘ओ३म् इन्द्रं वर्धन्तोऽप्तुरः कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। अपघ्नन्तो ऽराव्णः।। ऋक.9/63-5’’ की ओर भी गया। इसके पालनार्थ भारत से आर्य विद्वानों ने विेदेशों में जाकर व बाद में वहां निवास करनेवाले सुधी व्यक्तियों व विद्वानों ने वेद प्रचार करने का प्रशंसनीय कार्य किया जिससे वहां अनेक स्थानों पर आर्यसमाज स्थापित हो सके। इन प्रचारकों की सूची बहुत लम्बी हैं। कुछ प्रमुख नाम हैं- श्यामजी कृष्ण वर्मा, उद्योगपति सेठ नान जी भाई कालिदास मेहता, मेहता जैमिनी, मौरीशस के प्रधान-मंत्री श्री शिवसागर रामगुलाम, डा. चिरंजी लाल भारद्वाज, स्वामी ध्रुवानन्द, महात्मा आनन्द स्वामी, स्वामी शंकरानन्द, स्वामी स्वतन्त्रानन्द, भाई परमानन्द, पं. रूचिराम आर्य, पं. भवानी दयाल संन्यासी, स्वामी अभेदानन्द, पं. सत्यपाल सिद्धान्तालंकार तथा पं. ईश्वर दत्त विद्यालंकार आदि। आज अमेरिका, इंग्लैण्ड, अफ्रीका, आस्ट्रेलिया, कनाडा, हालैण्ड, मारीशस, सूरीनाम आदि अधिकांश देशों में आर्य समाज स्थापित हैं जहां नियमित रूप से सत्संग होने तथा भारतीय पर्व मनाने के साथ आर्य महासम्मेलन आदि के आयोजन भी होते रहते हैं। विदेशों में ही आर्य पुरोहित व प्रवचनकर्ता विद्वान भी सुलभ हैं। भारत से भी अनेक विद्वान विदेशों में प्रवचनार्थ जाते रहते हैं। विदेशों में विश्व आर्य महासम्मेलन प्रायः प्रत्येक वर्ष आयोजित होते रहते हैं जिनमें भारत सहित अन्य देशों के प्रतिनिधि भी भाग लेते हैं।
विदेशों में वेद प्रचार की दृष्टि से आर्य समाज को अभी बहुत बड़ा मार्ग तय करना है। हमारे विदेशी भाई वेद व आर्य समाज की विचारधारा की महत्ता को अभी भली प्रकार समझ नहीं पा रहे हैं। इस कार्य को गति देने के लिए हमें प्रचार के सभी माध्यमों का प्रयोग करते हुए सघन व प्रभावशाली प्रचार की योजना बनानी चाहिये जिससे कि हमारे विदेशी बन्धु आर्यसमाज से जुड़ सकें और यदि न भी जुड़े तो आर्यसमाज की विचारधारा, मान्यताओं व सिद्धान्तों की सत्यता को जानकर उन्हें अपने आचरण में ला सकें। यदि प्रचार उपयुक्त व प्रभावशाली रूप से होगा तो इसका विदेशी बन्धुओं पर अनुकूल प्रभाव अवश्य पड़ेगा। इस सम्बन्ध में हम पण्डित गुरूदत्त विद्यार्थी जी के एक बार आर्यसमाज अमृतसर के वार्षिकोत्सव पर दिए गए भाषण को प्रस्तत कर रहे हैं जिसमें उन्होंने कहा था कि स्वामी दयानन्द का ज्ञान लोगों को दो शताब्दियों के पश्चात् होगा जब कि जनसाधारण पूर्वाग्रह छोड़कर उनके साहित्य का अध्ययन करेंगे। अभी लोगों की यह स्थिति नहीं कि उस योगी की बातों को समझ सके। वह यह भी कहा करते थे कि जैसे पांच सहस्र वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध संसार में हुआ था जिसके कारण वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना न रहा, इसी प्रकार अब फिर संसार में एक बौद्धिक महाभारत की तैयारी हो रही है। पूर्व व पश्चिम के मध्य यह बौद्धिक युद्ध होगा। उसके बाद संसार में पुनः वेदों का पठन-पाठन प्रचलित होगा। स्वामी दयानन्द ने आर्यसमाज द्वारा इस बौद्धिक संग्राम का बीज सारे संसार में बो दिया है।
अभी तक हम वेदों का अंग्रेजी व विश्व की अनेक भाषाओं में सरल, सुबोध, प्रभावशाली व आजकल के लोगों की अपेक्षाओं के अनुकूल जिसमें विदेशी बन्धुओं को प्रभावित करने की क्षमता हो, तैयार व प्रकाशित नहीं कर पाये और न ही ऐसी कोई योजना है। जो कार्य हुआ है उसका सुधार व परिमार्जन व परिशोधन होना चाहिये। अभी महर्षि दयानन्द जी का ही हिन्दी भाष्य अपने सरल व प्रभावपूर्ण रूप में प्रकाशित नहीं हुआ है जिसका संकेत व उल्लेख वेदों के मूर्धन्य विद्वान डा. रामनाथ वेदालंकार आदि कर गये हैं। जब तक आर्य समाज की सभी प्रतिनिधि सभायें व परोपकारिणी सभा परस्पर मिल कर कोई ठोस योजना नहीं बनायेंगी तब तक इच्छित लक्ष्य प्राप्त करने में कठिनाई रहेगी।
आर्य समाज की स्थापना को 140 वर्ष हो रहे हैं। इस अवधि में आर्य समाज ने देश से अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, कुरीतियां, अशिक्षा, सामाजिक असमानता, जन्मना जातिवाद, बाल विवाह, बेमेल विवाह आदि अनेक सामाजिक बुराईयों को दूर करने का महत्वपूर्ण कार्य किया है। इसके साथ ही चारों वेदों पर अनेक विद्वानों के द्वारा भाष्यों की रचना, दर्शनों, उपनिषदों व मनुस्मृति आदि पर आर्ष भाष्यों की रचना, समाजोत्थान, भौतिक व वैज्ञानिक प्रगति आदि कार्यों में भी अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। वैदिक सन्ध्या व यज्ञ-अग्निहोत्र को लोकप्रिय बनाने के साथ अगणित परिवारों व संस्थाओं में सन्ध्या व दैनिक यज्ञों का अनुष्ठान सम्पन्न होता है। स्त्रियों को न केवल वेद पढ़ने का अधिकार प्रदान कराया गया है अपितु स्त्रियों को शिक्षा व सभी क्षेत्रों में समान अधिकारों के साथ गौरवपूर्ण स्थान दिलाया है। देश की आजादी में आर्य समाज की सर्वोपरि महत्वपूर्ण भूमिका थी। गुरूकुलों की स्थापना व उनके विस्तार से संस्कृत विद्या का प्रसार होने के साथ आर्य समाज को उपदेशक, प्रचारक, लेखक व साहित्यकार मिले हैं। हम अनुभव करते हैं कि देश, जाति, धर्म की उन्नति का ऐसा कोई कार्य ऐसा नहीं है जो आर्य समाज ने न किया हो या उसमें सहयोग या प्रेरणा न की है। इतना होने पर भी अभी बहुत कुछ किया जाना शेष है। विदेशों में भी आर्य समाज का विस्तार हुआ है और भविष्य में इसमें और प्रगति की आशा है। आर्य समाज का लक्ष्य ‘कृण्वन्तों विश्वमार्यम्’ है जो ज्ञान व विज्ञान के बढ़ने के साथ शीघ्र प्राप्त होगा जैसा कि आर्य मनीषी पं. गुरूदत्त विद्यार्थी ने आशा व्यक्त की थी जिसे पूर्व उद्धृत किया गया है। वेद प्रचार के लक्ष्य की शीघ्र प्राप्ति में प्रत्येक आर्य सदस्य एवं सदस्या को अपनी आहुति देनी है।
आर्य समाज के स्थापना दिवस की सार्थकता इस बात में है कि हम अपने-अपने आर्य समाज मन्दिरों में मिलकर अपने कार्यों व प्रचार की कमियों पर विचार करें और सभी प्रकार की कमियों को दूर करने का प्रयास करें। यदि ऐसा करते हैं तो हमारा प्रचार कार्य अधिक प्रभावशाली एवं परिणामदायक हो सकता है। आईये, आर्य समाज स्थापना दिवस पर स्वयं सच्चे आर्य बने और आर्य समाज का अधिक से अधिक प्रचार करने का प्रयास करें व प्रचारकों को सहयोग दें।
–मनमोहन कुमार आर्य
मनमोहन जी , इस से पहले मुझे आर्य समाज के बारे में कुछ नहीं पता था कि यह कौन सा धर्म है . सुआमी दया नन्द जी का नाम तो सुना था . आप के लेखों से कुछ कुछ जानकारी हो रही है.
मैं आपका अत्यंत आभारी हूँ कि आप मेरे लेखो को पढ़ते हैं। यह मेरा सौभाग्य है। हार्दिक धन्यवाद।
बहुत अच्छा लेख. इससे आर्य समाज द्वारा किये गए श्रेष्ठ कार्यों का संक्षिप्त परिचय मिलता है.
लेकिन… और यह ‘लेकिन’ बहुत बड़ा है…. लेख से यह बात स्पष्ट नहीं होती कि किस कारण से आर्य समाज अपने लक्ष्यों से भटक गया और किस तरह राजनीतिक गुटबाजी में फंस गया, जिससे रामगोपाल शालवाले और अग्निवेश जैसे ढोंगी और पाखंडी आर्यसमाज में ऊंचे ऊंचे पदों तक पहुँच गए. यदि संभव हो तो स्पष्ट करें.
आर्य समाज का संगठन प्रजातंत्रीय प्रणाली पर आधारित है। देश की आजादी के बाद संगठन में शिथिलता आयी और लोगो ने जोड़-तोड़ कर अपनी नेतागिरी चमकाई। योग्य पीछे चले गए और अयोग्य आगे आ गए। अनेक कारण हैं पतन के। अपने ज्ञान और अनुभव से मैं इतना कह सकता हूँ कि आज भी सैद्धांतिक दृष्टि से कोई भी धार्मिक संस्था आर्य समाज का मुकाबला नहीं कर सकती। आर्य समाज दवारा प्रचारित वैदिक धर्म ही विश्व में दोषो से रहित पूर्ण सत्य व वैज्ञानिक-तर्क-संगत धर्म है। हाँ, हमारे संगठन में अनेक कमिया और खामिया है जिसका समाधान हमारे पास नहीं है। संगठन में कमियों का मुख्य कारण राग द्वेष, काम, क्रोध, अहंकार, लोभ वा मोह आदि हैं। इसलिए मैं इनसे दूर हूँ। Apka hardic dhanyawad.
आपकी बात सत्य है, मान्यवर !
धन्यवाद जी।