वैदिक धर्म बनाम् मत-पन्थ-सम्प्रदाय
वेद और वेदों के अनुकुल वैदिक साहित्य सत्य ज्ञान एवं सभी विद्याओं से पूर्ण हैं। वेद मनुष्य कृत ग्रन्थ नहीं अपितु ईश्वर प्रदत्त सभी सत्य विद्याओं के ज्ञान से पूर्ण पुस्तकें हैं जिसका उदघोष महर्षि दयानन्द ने किया था और जिसका प्रमाण उन्होंने अपने सत्यार्थ प्रकाश और ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका आदि ग्रन्थों में किया है। वेदों से इतर विगत 20-25 शताब्दियों में रचित अन्य सभी ग्रन्थो में जो विचार व मान्यतायें हैं, उनमें कुछ वेद का ही ज्ञान है और कुछ उनका अपना अर्थात् उनके मत-प्रवतकों व उनके अनुयायियों के विचार हैं। यह ध्यान रखना चाहिये कि ईश्वर कभी जन्म नहीं लेता। जन्म केवल जीवात्माओं का कर्म के भोग व मोक्ष आदि के लिए नये कर्मों के करने के लिए ईश्वर द्वारा दिया जाता है। जो ज्ञान व मान्यतायें वेदानुकूल नहीं है, वह त्याज्य हैं। अतः किसी मत-पन्थ विशेष को ही मानने व उसमें बने रहने से यह हानि है कि उनमें जो न्यूनतायें हैं, वह उन-उन पन्थों व सम्प्रदायों के अनुयायियों में सदा-सर्वदा बनी रहेंगी व बनी हुईं हैं।
आज सेवा व दान पर अधिक जोर है। ईसाई व सिख मत में यह दोनों गुण व प्रवृत्ति अन्यों से कुछ अधिक दिखाई देती है। परन्तु इस सृष्टि के आरम्भ से महाभारतकाल तक और बाद में भी सेवा व दान आदि गुण व प्रवृत्ति भारत व संसार में विद्यमान थीं। गुरुकुलों में शिष्य-ब्रह्मचारी अपने गुरूजी या आचार्यजी की सेवा करते थे। सन्तानें अपने माता-पिता व आचार्यों सहित परिवार व समाज के वृद्धों व ज्ञानियों-विद्वानों का संगतिकरण कर सेवा व दान करते थे। हमारे प्राचीन वैद्य सेवाभाव से रोगियों की निःशुल्क चिकित्सा करते थे। रोगियों की सेवा के लिए ही आयुर्वेद जैसे महान ग्रन्थ महर्षि चरक व सुश्रुत आदि ने लिख कर किसी एक सम्प्रदाय पर नहीं अपितु विश्व के सभी मनुष्यों का कल्याण किया था। आज भी देश-विदेश में लोग इससे लाभान्वित हो रहे हैं। सेवा की भावना और सेवा तथा दान की भावना व दान एक दूसरे के पूरक एवं पोषक हैं। आज देश में जितने गुरूकुल व दयानन्द ऐंग्लो-वैदिक कालेज (डी.ए.वी. कालेज) चल रहे हैं यह सब सन् 1875 के बाद महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के अनुयायियों के दान व सेवा की भावना का परिणाम हैं जिससे देश में शिक्षा जगत में अपूर्व क्रान्ति उत्पन्न हुई। यह प्रसन्नता की बात है कि आर्य समाज के इस गुण का अन्य सभी मतों व पन्थों ने भी अनुकरण किया जिससे आज समाज में शिक्षा व ज्ञान का स्तर पूर्व की तुलना में अच्छा है। शिक्षा के क्षेत्र में बुराईयां या कमियां भी हैं। सामाजिक विषमता या असमानता भी कम वा दूर हुई है। अतः शिक्षा, जो कि नैतिकता से जुड़ी होती है व नैतिकता की भावना की प्रसारक व पोषक है, उसे प्राप्त करने के अभी बहुत किया जाना शेष है।
महर्षि दयानन्द व आर्य समाज के अनेक लोगों ने स्थान-स्थान पर गुरूकुलों व डी.ए.वी कालेजों की स्थापना के लिए सर्वस्वदान वा धन-सम्पत्ति-आभूषण व जीवन दान आदि के साक्षात् उदाहरण प्रस्तुत किये। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय जी आदि को इसमें सम्मिलित किया जा सकता है। इनसे देश का सर्वाधिक कल्याण हुआ। सन् 1875 व उससे पूर्व आज की शैक्षिक एवं सामाजिक सस्थायें कहां थी? सेवा व दान की शिक्षा सभी को किस संस्था से मिली? पन्थी व सम्प्रदायवादी लोग अपने–अपने मत व पन्थ को ही बड़ा मानते हैं जबकि वेद धर्म का पालन कर्त्ता सभी मनुष्यों को एक ईश्वर की सन्तान मानकर उनसे यथायोग्य व्यवहार व आचरण करता है व सर्वे भन्तु सुखिनः की भावना से सबके कल्याण के लिए कार्य करता है। यह वेद मत-धर्म व पन्थ-सम्प्रदाय-मत के अनुयायियों में अन्तर है। मत-पन्थों का अनुयायी केवल अपने मत की मान्यताओं का ही पालन करता है इस कारण वह वेद की अन्य उदार शिक्षाओं, विचारों व गुणों से वंचित रह जाता है जो किसी भी मत या पन्थ में प्रायः नहीं है। जीवन को सर्वांगीण बनाने, जीवन को सफल करने व मनुष्य जीवन के लक्ष्य व उद्देश्य “दुःख–निवृत्ति, मुक्ति वा मोक्ष” की प्राप्ति के लिए वेद और वैदिक ग्रन्थों की शिक्षाओं का पालन संसार के सभी लोगों के लिए करना आवश्यक है। अन्य कोई मार्ग नहीं है।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा और प्रेरक लेख.
आपको लेख अच्छा और प्रेरक लगा, यह मेरे सौभाग्य है। ईश्वर और आपका धन्यवाद।
मनमोहन जी ,हमेशा की तरह लेख बहुत अच्छा लगा .
आपने लेख पसंद किया, यह मेरे सौभाग्य है। ईश्वर और आपका धन्यवाद।