उपन्यास अंश

यशोदानंदन-२९

श्रीकृष्ण जैसे-जैसे बड़े हो रहे थे, उनके सम्मोहन में गोप-गोपियां, ग्वाल-बाल, पशु-पक्षी, नदी-नाले, पहाड़ी-पर्वत, पेड़-पौधे, वन-उपवन – सभी एक साथ बंधते जा रहे थे। उन्होंने अब छठे वर्ष में प्रवेश कर लिया था। उनकी सुरक्षा के लिए चिन्तित माता-पिता  अब अपेक्षाकृत अधिक विश्वास से भर गए थे। अपने बाल्यकाल में ही उन्होंने पूतना से लेकर अघासुर तक का वध जितनी सहजता से किया था, इससे संपूर्ण व्रज में यह तो सबने स्वीकार कर ही लिया कि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण कोई सामान्य बालक नहीं थे। यह धारणा सबके हृदय में दृढ़ हो गई थी कि दैविक गुणों से संपन्न श्रीकृष्ण का कोई बाल बांका भी नहीं कर सकता। असाधारण रूप से वे मातु यशोदा और नन्द महाराज के ही नहीं, व्रज के प्रत्येक वय के गोप-गोपियों की आँखों के तारे बन चुके थे।

जब से श्रीकृष्ण ने वृन्दावन में गौवों को चराना आरंभ किया, वहां के सौन्दर्य में निरन्तर वृद्धि सबने लक्ष्य की। श्रीकृष्ण की वंशी की धुन सुन पेड़, पौधे, वनस्पतियों, पुष्पों और कलियों में अद्भुत निखार आना प्रारंभ हो गया। जो वृक्ष वर्ष में सिर्फ एक बार फल देते थे, वे पूरे वर्ष फल से लदे रहने लगे। पक्षियों का कलरव श्रीकृष्ण की वंशी से होड़ करने लगा। वृन्दावन में अनेक सरोवर स्वच्छ जल से परिपूर्ण थे। स्वच्छन्द जलपक्षी की जलक्रीड़ायें मन को मोह लेती थीं। सरोवर के चारों ओर फलों और फूलों से लदी टहनियां स्वच्छ जल के स्पर्श के लिए आतुर रहती थीं। धरती पर प्रकृति ने हरी-हरी घासों का गलीचा बिछा दिया था। गोप-गोपियों के गोधन उन्मुक्त होकर विचरण करते और घास चरते थे। श्रीकृष्ण और बलराम अपने सखाओं के साथ दिन भर तरह-तरह के खेल खेलते – कभी पेड़ों पर चढ़ने वाले, तो कभी कन्दुक के साथ क्रीड़ा। न जाने कितने खेलों का ज्ञान था उन्हें और उनकी मंडली को। थक जाने पर सरोवर कि किनारे बैठकर अपनी वंशी की मधुर धुन से सबकी थकान वे अकेले हर लेते थे। संध्या के आगमन के पूर्व सभी अपनी-अपनी गायों और बछड़ों को एकत्रित कर लेते। श्रीकृष्ण ने अपनी प्रत्येक गाय का नामकरण कर रखा था। वे दूर से उन्हें नाम से पुकारते और वे शीघ्र ही उनका स्वर सुन पास आ जातीं। दिन इसी तरह आनन्द से व्यतीत हो रहे थे।

एक दिन कुछ गोपों ने समीप के वन में धेनुकासुर की उपस्थिति की सूचना दी। वृन्दावन से सटे लंबे-लंबे ताल वृक्षों का एक घना जंगल था। सारे वृक्ष फलों से लदे रहते थे। असंख्य फल धरती पर गिरे रहते थे। उनकी सुगंध वृन्दावन तक आती थी, परन्तु कोई भी धेनुकासुर और उसके मित्रों के भय से तालवन में प्रवेश नहीं करता था। एक दिन सभी ग्वाल-बाल तालवन के समीप पहुंच गए। फलों की सुगंध नासिका के रंध्रों में समा रही थी। उनको चखने की इच्छा बलवती हुई जा रही थी, परन्तु धेनुकासुर के भय से पांव ठिठक गए। सबने समाधान के लिए कृष्ण-बलराम के मुखमंडल पर दृष्टि गड़ा दी। भला श्रीकृष्ण-बलराम अपने मित्रों की इच्छा का सम्मान कैसे नहीं करते? आगे-आगे श्रीकृष्ण-बलराम और पीछे-पीछे बाल मंडली। सबने तालवन में निर्भीक होकर प्रवेश किया। बलराम ने प्रवेश करते ही ताल के वृक्षों को पकड़कर हिलाना प्रारंभ कर दिया। पके फल धम्म-धम्म की ध्वनि के साथ धरती पर गिरने लगे। सभी ग्वाल-बाल ताजे स्वादिष्ट फलों को आनन्द से खाने लगे। धेनुकासुर उस समय सो रहा था। बच्चों के कोलाहल और फलों के गिरने की ध्वनि ने उसकी निद्रा में व्यवधान डाला। जगने पर वह कोलाहल की ओर बढ़ा। कुछ ही दूर आगे जाने पर उसे कृष्ण और बलराम का साक्षात्कार हुआ। उसने एक विकराल गधे का रूप ले रखा था। कहां फूल से भी कोमल दो बालक और कहां गर्धभरूपी विशाल धेनुकासुर! वह तेजी से आगे बढ़ा। समीप के वृक्षों पर चहचहाते पक्षी ऊंचे आकाश में उड़ गए। ऐसा लगा, जैसे पृथ्वी पर भूचाल आ गया है। पहले वह बलराम के पास गया। जबतक बलराम कुछ सोच पाते, उसने एक जोरदार दुलत्ती का प्रहार उनकी छाती पर कर दिया। बलराम ने उसके दोनों पिछले पैर पकड़ लिए, फिर आकाश में इतनी तेजी से घुमाया कि असुर अचेत हो गया। बलराम जी ने गोल-गोल कई चक्कर लगाए और अन्त में पूरी शक्ति से उसे आकाश में उछाल दिया। भूमि पर गिरते समय धेनुकासुर के शव से टकराकर कई तालवृक्ष धराशायी हो गए। धेनकासुर के मित्रों ने यह दृश्य अपनी आंखों से देखा। क्रुद्ध होकर एकसाथ वे श्रीकृष्ण-बलराम पर टूट पड़े। दोनों ने एक-एक की खबर ली। सभी गर्दभरूपधारी असुरों की पिछली टांगें पकड़  दोनों भाइयों ने चकरघिन्नी की भांति नचाया। शीघ्र ही तालवन असुरों के शवों से पट गया। श्रीकृष्ण-बलराम ने पूरे तालवन को असुरों के आतंक से सदा के लिए मुक्त करा दिया।

धेनुकासुर-वध का समाचार श्रीकृष्ण के लौटने के पूर्व ही वृन्दावन गांव में पहुंच चुका था। संध्या के समय घर लौटने पर स्वागत के लिए समस्त वृन्दावनवासी मार्ग के किनारे पहले से ही उपस्थित थे। श्रीकृष्ण-बलराम की आरती उतारी गई, भाल पर तिलक लगाया गया और सिर पर पुष्प-वर्षा की गई। गोपिकायें श्रीकृष्ण के दर्शन को लालायित हो उठीं। उन्हें देख गोपियां हर्ष से मुस्कुराईं और खिलखिलाकर हंसी भी। श्रीकृष्ण ने बांसुरी की मधुर धुन से अपने स्वागत का उत्तर दिया। माता यशोदा तथा रोहिणी ने दौड़कर अपने लाडलों को वक्षस्थल से लगाया। कही कोई खरोंच नहीं थी। मुदित मन से दोनों माताओं ने नन्द जी के साथ महल में प्रवेश किया। पुत्रों को नहलाया और सुन्दर वस्त्रों से उन्हें सज्जित किया। स्वादिष्ट व्यंजन परोसे और दोनों पुत्रों को स्नेह और प्यार के अतिरिक्त स्वाद के साथ भोजन कराया। दोनों बालकों ने अपने श्रीमुख से दोनों माताओं को दिन भर के क्रियाकलापों से अवगत कराया। माताओं ने मधुर स्वर में लोरियां सुनाईं। बिस्तर पर लेटते ही श्रीकृष्ण-बलराम प्रगाढ़ निद्रा के आलिंगन में बद्ध हो गए।

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-२९

  • विजय कुमार सिंघल

    धेनुकासुर वध की कथा रोचक है.

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