कविता

घर…

थक के चूर

जब भी होता हूँ कभी

तेरी यादों की दीवारों से

लगके सो जाता हूँ मैं..!

अहसासों के झरोखों से

घूमती तेरी खुशबु

तेरे होने का एहसास कराती मुझको

कोई झरोखा न लगाया मैंने..!!

कोई आंधी कोई तूफान

कई बरसात की रातें

तेरे आँचल की छत के तले गुजारी मैंने..!!!

तकती आँखें कही मुंद न जाएँ

बंद ख्यालों के पीछे

तेरे इंतज़ार में

कोई दरवाजा न लगाया मैंने

वाह…

क्या खूब  घर बनाया मैंने ….!!!!

सूर्य प्रकाश मिश्र

स्थान - गोरखपुर प्रकाशित रचनाएँ --रचनाकार ,पुष्प वाटिका मासिक पत्रिका आदि पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख प्रकाशित लिखना खुद को सुकून देना जैसा है l भावनाएं बेबस करती हैं लिखने को !! संपर्क [email protected]

One thought on “घर…

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह !

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