कविता

नवरात्रे

 

नवरात्रा पर्व मनाते है
देवी को हम रिझाते है
खुद को सर्वश्रेष्ठ दिखा
हवन पूजन कराते है
पर क्या कभी किसी देवी की
मनोस्थिति समझनी चाही
कोख मे ही मारा किसी ने
जब भी वो जन्म नी चाही
या किसी कन्या रूप मे
उसका शोषित हाल हुआ
कर तार तार उसकी इज्जत
इंसानियत बेहाल हुआ
कभी घर कभी बाहर
कहा है कन्या सुरक्षित है
मानवता के न जाने किस रुप मे
छिपे दरिंदे की जीत है
करो भले कितने भी जतन
किसी देवी को मनाने की
हरहाल में रोयेगी वो
इस इंसानियत को खाने की
हटानी पङेगी गंदगी ये
हमको गर उसे मनाना है
एक दो से नही होगा
सबको कदम मिलाना है
नजर को अपनी साफ करके
जो कन्या को देवी समझे
ऐसे सुन्दर अहसास हमे
अब इस धरा पर लाना है
होगा तप पूरा जब ये
ये सोच सुंदर धारण होगी
नवरात्र मनाने की कोशिश
इस बार इसी कारण होगी

*एकता सारदा

नाम - एकता सारदा पता - सूरत (गुजरात) सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने [email protected]

4 thoughts on “नवरात्रे

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया !

    • एकता सारदा

      शुक्रिया विजय भाई

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अछिकविता .

    • एकता सारदा

      शुक्रिया आदरणीय

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