यशोदानंदन-३०
यमुना के किनारे यमुना के जल की ही एक विशाल झील थी। कोई भी पशु-पक्षी भूले से भी अगर उसका जल पी लेता, तो मर जाता। कोई भी वृन्दावनवासी उसके जल का प्रयोग नहीं करता था। उसमें विशाल जहरीले नाग कालिया का बसेरा था। सभी उसके पास जाने से डरते थे लेकिन श्रीकृष्ण को क्या डर हो सकता था?
उस दिन वे अपनी मित्रमंडली के साथ कालिया दह के समीप ही कन्दुक-क्रीड़ा कर रहे थे। गाय और बछड़े अपने नियत स्थान पर घास चर रहे थे। कभी श्रीकृष्ण कन्दुक को पैर से मारते और सुदामा रोकते, तो कभी सुदामा मारते और श्रीकृष्ण रोकते। एक कन्दुक श्रीकृष्ण के पास था और एक सुदामा के पास। उस दिन सुदामा के कन्दुक से सभी खेल रहे थे। खेल प्रगति पर था कि अचानक श्रीकृष्ण ने कन्दुक पर पूरी शक्ति से प्रहार किया। कन्दुक देर तक हवा में रहा और कालिया दह के जल में जा गिरा। रुआंसे सुदामा ने श्रीकृष्ण से अपने कन्दुक की मांग की। वह लगातार शिकायत कर रहा था कि श्रीकृष्ण ने जानबूझकर उसका कन्दुक कालियादह में फेंक दिया था। श्रीकृष्ण ने उसे अपनी गेंद देकर संतुष्ट करने का प्रयत्न किया, परन्तु वह तो अपने ही हठ पर अड़ा था – उसे अपनी ही गेंद चाहिए थी। सभी ग्वाल-बाल समझाये जा रहे थे कि कालियादह में घुसकर गेंद निकालना असंभव था लेकिन वह चुप होने का नाम ही नहीं ले रहा था। उसने मातु यशोदा से शिकायत करने की धमकी भी दे डाली। अब श्रीकृष्ण को रोकना कठिन था। वे कालियादह की ओर दौड़े। किनारे पर खड़े कदंब के वृक्ष पर चढ़ गए और देखते ही देखते दह में छ्लांग लगा दी। समस्त ग्वाल-बाल दह के किनारे पहुंच गए। विषैले जल में एकबार जाकर उस दिन तक कोई भी जीवित नहीं लौटा था। फिर जहां तक दृष्टि जाती थी, श्रीकृष्ण कहीं भी दृष्टिपथ में नहीं आ रहे थे। सभी ग्वाल-बालों ने समवेत स्वर में विलाप करना आरंभ कर दिया। गौवें और बछड़े भी चरना भूल दह के किनारे आ गए। सबकी आँखों में आंसू भरे थे। कुछ बाल ग्राम की ओर भागे तथा श्रीकृष्ण के कालियादह में खो जाने की सूचना नन्द महाराज को दी। फिर क्या था? संपूर्ण वृन्दावन कालियादह के किनारे एकत्रित हो गया। माँ यशोदा अपने पुत्र को न पाकर अपना सन्तुलन खो बैठीं। मूर्च्छित हो किनारे गिर पड़ीं। नन्द महाराज श्रीकृष्ण को ढूंढ़ने कमर भर जल में पहुंच गए। उन्हें बलराम ने रोका। एक वही थे जो निश्चिन्त भाव से तट पर श्रीकृष्ण की वापसी की प्रतीक्षा कर रहे थे। ऊंचे स्वर में माता-पिता और समस्त वृन्दावन निवासियों को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा –
“हे वृन्दावनवासियो! आप श्रीकृष्ण के लिए तनिक भी चिन्ता न करें। इस विश्व में कोई भी देव, असुर, नाग, गंधर्व या मनुष्य ऐसा नहीं है जो हमारे कान्हा की कनिष्ठा ऊंगली को भी टेढ़ी कर सके। जब बड़े-बड़े असुर भी उसका बाल बांका नहीं कर सके, तो कालिया नाग की क्या औकात जो हमारे कान्हा को कही से भी कोई कष्ट दे सके। आपलोग धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा कीजिए। शीघ्र ही कालिया पर निर्णायक विजय प्राप्त कर श्रीकृष्ण आप सबके सम्मुख उपस्थित होगा।”
बलराम के आश्वासन पर विश्वास करने के अतिरिक्त वृन्दावनवासियो के पास विकल्प ही क्या था? नयनों से नीर बह रहा था, हृदय रो रहा था परन्तु शरीर प्रतीक्षा में खड़े थे।
कालियादह के मध्य में पहुंचकर श्रीकृष्ण ने भीषण गर्जना की। यह गर्जना नहीं, कालिया नाग को प्रत्यक्ष चुनौती थी। अपने अधिकार क्षेत्र में एक सांवले-सलोने, मुख पर सुन्दर मुस्कान वाले, पीतांबर सुशोभित, अलौकिक सौन्दर्य से युक्त एक बालक को स्वच्छन्द जल क्रीड़ा करते देख पहली बार तो वह मुग्ध हुआ, परन्तु दूसरे ही क्षण उसका अहंकार जाग उठा। बड़ी सहजता से अपनी कुंडली में श्रीकृष्ण को दबोच कर वह जल के स्तर से उपर आया। सर्प की कुंडली में श्रीकृष्ण को बंधा देख स्नेही गोपीजन चीत्कार कर उठे। उन्होंने अपना सर्वस्व – अपने प्राण, संपत्ति, प्रेम, कार्यकलाप – सभी श्रीकृष्ण को अर्पित कर रखे थे। वे श्रीकृष्ण को इस स्थिति में देख नहीं पाए। दुःख और करुणा के वशीभूत वे भूमि पर गिर पड़े। सारी गौवें, बैल तथा बछड़े भी शोक संतप्त हो उठे। दुःख और वेदना के कारण वे सिर्फ रो सकते थे; चाहकर भी श्रीकृष्ण को किसी तरह की कोई सहायता पहुंचाने में सभी असमर्थ थे।
काफी देर तक श्रीकृष्ण कालिया की कुंडली में बंधे रहे। तट पर सारे गोकुलवासी – माता-पिता, गोपियां, ग्वाल तथा गोधन मृतप्राय हो कातर नेत्रों से उन्हें देख रहे थे। अपने स्वजनों की पीड़ा कान्हा से देखी नहीं गई। उन्होंने अपने शरीर का विस्तार करना आरंभ किया। कालिया नाग पूरी शक्ति से प्रतिरोध कर रहा था। ऐसा लगा, उसका शरीर फट जाएगा। काफी खींचतान उसने की, परन्तु श्रीकृष्ण के आगे उसकी एक न चली। कुंडली शिथिल हो गई और श्रीकृष्ण मुक्त हो गए। अपनी पराजय से उद्विग्न कालिया ने अपने फन फैला दिए और पूरी शक्ति से फुफकारते हुए श्रीकृष्ण पर आक्रमण किया। उसने अपने नथुनों से विषैली फुत्कार की, आँखे अग्नि के समान दहक उठीं और मुख से ज्वाला निकलने लगीं। अपनी दुधारी जीभ से होंठ चाटते हुए अपने दोहरे फनों से उसने श्रीकृष्ण को डसने का प्रयास किया। उछलकर श्रीकृष्ण उसके फनों के उपर सवार हो गए। पैरों से वे कालिया का फन दबा रहे थे और हाथों से वंशी को होठों से लगा मधुर संगीत का सृजन कर रहे थे। अधरों पर वही चिर परिचित मुस्कान अब भी स्थिर थी। उनके चरणों का प्रहार कालिया के लिए असह्य हो रहा था। अपने लगभग सौ फनों से उसने प्रहार करने का प्रयास किया परन्तु सारे असफल रहे। श्रीकृष्ण के पाद-प्रहारों से उसके फनों से विष निकला, फिर रक्त। उसका शरीर शिथिल पड़ने लगा। मृत्यु को आसन्न मान उसने भगवान विष्णु की शरण ली। मन ही मन उनकी आराधना करने लगा। नाग-पत्नियों को श्रीकृष्ण की दिव्य लीला को समझने में विलंब नहीं हुआ। उन्होंने चारों ओर से श्रीकृष्ण को घेरकर प्रार्थना की –
“हे भगवन्! आप समदर्शी हैं। आपके लिए शत्रु, मित्र, पुत्र, पुत्री में कोई भेद नहीं है। आपने कालिया को जो दंड दिया, वह सर्वथा उचित है। हे स्वामी! आप दुष्टों के संहार के लिए ही इस जगत में अवतरित हुए हैं। आप ही परम सत्य हैं। आपकी कृपा तथा दंड में कोई अन्तर नहीं है। आप द्वारा कालिया को दिया गया दंड वस्तुतः उसके लिए वरदान है। उसके फनों पर आपके द्वारा नृत्य करने से उसके सारे पाप क्षीण हो चुके हैं। यह अत्यन्त शुभ है। निश्चय ही पूर्वजन्म में इसने ढेर सारे धार्मिक कृत्य और अनेक प्रकार की तपस्या की होगी। हे परन्तप! आप ही परम पुरुष हैं और सभी जीवों के भीतर परमात्मा रूप में निवास करते हैं। आप साक्षात दुर्दान्त काल हैं। आप भूत, वर्तमान और भविष्य में घटित होने वाले सारे कार्य-कलापों को भलीभांति देख सकते हैं। आप स्वयं विराट रूप हैं, तो भी आप ब्रह्माण्ड से भिन्न हैं। आप ही समस्त ब्रह्माण्ड के अधीक्षक तथा पालक हैं और आप ही इसके आदि कारण भी हैं। हे भगवन्! हम बारंबार आपको प्रणाम करती हैं। आपके प्रहारों को सहने में सर्वथा असमर्थ यह सर्प अब प्राण त्यागने ही वाला है। हम इसकी प्राण रक्षा के लिए एक साथ प्रार्थना करती हैं। आप इस तथ्य से भलीभांति परिचित हैं कि स्त्रियों के लिए पति ही सर्वस्व होता है। यदि यह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, तो हमारा सर्वनाश हो जायेगा। आप परम दयालू हैं। हम पर कृपा करें, भगवन्!। इसे हमलोगों के लिए क्षमा कर दें। इसने आपके असली स्वरूप को पहचानने में भूल की है। आपकी शक्ति को जाने बिना अपराध किया है। हे प्रभु! एक बार क्षमा कर दें, फिर आप जैसा कहेंगे हम सभी वैसा ही करेंगे।”
नागपत्नियों की प्रार्थना पर श्रीकृष्ण ने अपने प्रहार बंद कर दिए। अपने को पुष्प की भांति हल्का भी कर लिया। कालिया की चेतना वापस आने लगी। उसके शरीर में प्राणों का संचार हुआ। उसकी इन्द्रियां चैतन्य हो उठीं। अपने कृत्यों पर पश्चाताप करते हुए उसने श्रीकृष्ण की आराधना की –
“हे परम पिता! हे परब्रह्म! मेरा जन्म ऐसी योनि में हुआ है कि तमोगुण के आधिक्य के कारण मैं स्वभाव से क्रोधी और ईर्ष्यालू हो गया हूँ। आपके स्पर्श से मुझे ऐसा लगता है कि मैं इन दुर्गुणों से मुक्त हो गया हूँ, अन्यथा इतनी सहजता से आप मुझे प्राणदान प्रदान नहीं करते। मेरी दुष्प्रवृत्तियों और दुष्कर्मों के लिए मुझे क्षमादान देकर मुझे कृतार्थ करें, प्रभु। मैं पूर्ण रूप से आपका शरणागत हूँ। आप द्वारा दिया गया दंड भी मुझे स्वीकार है और कृपा भी। इस दास के लिए जो भी उचित करणीय है, बताने का कष्ट करें। आपके आदेश के पालन में अगर मुझे अपने प्राण भी विसर्जित करने पड़ें, तो इसे मैं अपना सौभाग्य मानूंगा।”
श्रीकृष्ण ने कालिया के समस्त अपराधों को क्षमा कर दिया और उसे आदेश दिया –
“तुमने यमुना की इस विशाल झील को अपने विष से जहरीला बना दिया है। तुम्हारा पाप अक्षम्य है। परन्तु तुमने शुद्ध हृदय से अपने पापों के लिए क्षमा याचना की है। अतः मैं तुम्हें क्षमा करता हूँ। तुम अविलंब इस स्थान को छोड़कर सागर में चले जाओ और वहां भी भूलकर भी अपने विष से सागर को प्रदूषित करने का पाप नहीं करना। तुम अपने साथ अपनी सारी पत्नियां, सारे पुत्र-पुत्रियां तथा समस्त संपत्ति भी ले जा सकते हो।”