आर्य समाज के उर्दू साहित्य का संरक्षण व उसका हिन्दी अनुवाद
महाभारत काल के बाद लगभग 5000 वर्ष का समय भारत के धार्मिक एवं सामाजिक जगत के लिए ह्रास व पतन का था। ऐसे समय में महर्षि दयानन्द ने 10 अप्रैल, 1875 को मुम्बई में आर्य समाज की स्थापना की। महर्षि दयानन्द वेदों के पारदर्शी विद्वान थे और महाभारत काल के बाद वा विगत 5,000 वर्षों में भूमण्डल पर उत्पन्न हुए महान पुरूषों में अन्यतम थे। महर्षि दयानन्द के विचारों, मान्यताओं, शिक्षाओं व उनके द्वारा प्रचारित वेदों का प्रभाव यूं तो सारे देश व प्रकारान्तर से संसार पर हुआ परन्तु पंजाब में उनका प्रभाव देश के अन्य भागों से अधिक था। इसका अनुमान उन दिनों पंजाब में आर्य समाज, आर्य संस्थाओं, अनुयायियों एवं विद्वानों की संख्या से होता है जो कि अन्य स्थानों व राज्यों की तुलना में सर्वाधिक थीं। आर्य समाज के इन विद्वानों में हम लाला साईंदास के साथ स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरूदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, महात्मा हंसराज, लाला लाजपतराय, स्वामी दर्शनानन्द सरस्वती, महाशय कृष्ण, महाशय राजपाल, मेहता जैमिनी जी, पं. चमूपति, मास्टर लक्ष्मण आर्य, पं. गंगाप्रसाद उपाध्याय आदि को ले सकते हैं। पंजाब के अन्य विद्वानों एवं लेखकों की सूची भी काफी विस्तृत हैं जिन्होंने अनेक मौलिक ग्रन्थ उर्दू भाषा में लिखे हैं जिनमें से अधिकांश का अभी तक हिन्दी वा अंग्रेजी भाषाओं, जो आजकल प्रचलन में हैं, अनुवाद व प्रकाशन नहीं हुआ है।
महर्षि दयानन्द के जीवन काल में पंजाब की बोलचाल व लेखन की भाषा मुख्यतः उर्दू-फारसी थी। अतः आर्य समाज के विद्वानों ने अधिकाशतः उस समय अपना लेखन कार्य उर्दू-फारसी में ही किया। पं. लेखराम जी, लाला लाजपतराय, स्वामी श्रद्धानन्द व महाशय कृष्ण जी एवं अन्य अनेक प्रमुख विद्वानों का साहित्य मुख्यतः उर्दू में ही है। स्वामी श्रद्धानन्द जी एवं महाशय कृष्ण जी आदि के ‘सद्धर्म प्रचारक’ व ‘प्रकाश’ आदि पत्र उर्दू में ही प्रकाशित होते थे। आर्य विद्वानों के लेख आदि भी उर्दू की पत्र पत्रिकाओं आदि में प्रकाशित होते थे। अतः धर्म, अध्यात्म, संस्कृति, समाज से संबंधित महत्वपूर्ण सामग्री इन उर्दू पुस्तकों एवं पत्र-पत्रिकाओं में विद्यमान है जो विलुप्ति के कागार पर है। आवश्यकता यह भी अनुभव की जा रही है कि आर्य समाज के उर्दू के विद्वानों की एक विद्वतमण्डली तैयार हो जो उपलब्ध प्रमुख उर्दू के पत्ऱ-पत्रिकाओं में से मुख्य मुख्य-विद्वानों के लेखों का संकलन कर उनका हिन्दी अनुवाद कर उनके संग्रहों का प्रकाशन करे। संस्कृत व हिन्दी-अंग्रेजी के युवा विद्वान भी यदि उर्दू सीखकर इस कार्य कों करें तो यह भी एक अच्छी सेवा हो सकती है। अभी तो उर्दू की पत्र-पत्रिकायें एवं पुस्तकें श्री राजेन्द्र जिज्ञासु जी के निजी पुस्तकालय, आर्य समाज के पुराने पुस्तकालयों व यत्र-तत्र व्यक्ति-विशेषों आदि के पास मिलनी सम्भव है परन्तु आर्य समाजों में जिस प्रकार की व्यवस्था व रखरखाव है, उससे अनुमान है कि यह बहुत समय तक उपलब्ध व सुरक्षित नहीं रह सकेंगी। इस ओर अभी हमारी सभाओं व संस्थाओं का ध्यान नहीं है। यह कार्य इन्हीं के द्वारा करणीय हैं। इसका एक कारण यह भी है कि यह कार्य अति श्रम एवं धनसाध्य है। दूसरी ओर तथ्य यह भी है कि आर्य समाज में समय-समय पर बड़े-बड़े आयोजन मुख्यतः सम्मेलन व समारोह आदि होते रहते हैं जिसमें बड़ी धनराशि व्यय की जाती है जो कि आयोजन के बाद एक प्रकार क निरर्थक हो जाती है। इसी प्रकार से बहुत सी समाजों व संस्थाओं का ध्यान भवन निर्माण पर हैं। इन्हें जो भी धन दान में मिलता है, उन्हें लगता है कि इसका सबसे अधिक उपयोग भवन निर्माण कर ही किया जा सकता है। यह स्थिति इस लिए उचित नहीं है इससे महत्वपूर्ण कार्य हमारे पूर्वज विद्वानों के साहित्य की रक्षा है जो कि हो नहीं रहा है। महर्षि दयानन्द ने लिखा है कि लुप्त वा अनुपलब्ध हुए साहित्य का मिलना प्रायः सम्भव नहीं होता। अतः प्राचीन उर्दू के उपयोगी एवं महत्वपूर्ण साहित्य की रक्षा उसके अनुवाद व प्रकाशन से ही हो सकती है। इस प्रकार विचार करने पर यह निष्कर्ष निकलता है कि दुलर्भ व अप्राप्य साहित्य का प्रकाशन आर्य विद्वानों, आर्य समाजों व सभा संस्थाओं का मुख्य कर्तव्य हैं।
विज्ञान ने आजकल साहित्य के संरक्षण के नये उपाय सुलभ करायें हैं। इनमें से एक यह भी है कि प्रकाशन के व्यय से बचने के लिए उर्दू पुस्तकों का हिन्दी अनुवाद कराकर उन्हें पुस्तक रूप में टाईप कराकर उनकी पीडीएफ तैयार कर सुरक्षित कर ली जाये। इसे सभाओं की वेबसाइट पर भी अपलोड किया जा सकता है जिससे देश-विदेश के लोगों को घर बैठे निःशुल्क ही यह उपलब्ध हो सकें। अभी किसी सभा, संस्था या आर्य समाज ने यह कार्य शुरू किया या नहीं, इसका हमें ज्ञान नहीं है। आशा है कि इस पर भी ध्यान दिया जायेगा और इस नई विधा का उपयोग कर दुलर्भ व महत्वपूर्ण कार्य के संरक्षण का कार्य किया जा सकता है। हिन्दी या अंगे्रजी की पुस्तकों की यदि पीडीएफ तैयार करनी हो तो इस कार्य में हम भी सहयोग कर सकते हैं बशर्ते कि किसी दुर्लभ, अप्राप्त व अतिमहत्वपूर्ण किसी पारदर्शी विद्वान की कोई कृति हो।
इस लेख में हम आर्यसमाज के उर्दू के विद्वानों से यह भी प्रार्थना करना चाहते हैं कि वह अपना कार्य धर्म भाव से करें। यदि स्वयं प्रकाशन करना हो तो अवश्य करें परन्तु भव्य व त्रुटिशून्य प्रकाशन करें और मूल्य कम रखे। अपने प्रकाशनों को आर्य समाज के प्रमुख प्रकाशकों के माध्यम से पाठकों को उपलब्घ करायें। कई विद्वान पुस्तक पर ‘सर्वाधिकार लेखक व प्रकाशकाधीन’ व ‘बिना लेखक की लिखित अनुमति के पुस्तक का कोई अंश उद्धृत न करें’ जैसे शब्दों का मुद्रण इंगित करते हैं। जब हम इस प्रकार की पंक्तियां पढ़ते हैं तो हमें मानसिक पीड़ा होती है। यह तो ठीक है कि दूसरा कोई व्यक्ति बिना नामोल्लेख सामग्री का उपयोग न करे परन्तु साभार महत्वपूर्ण सामग्री को उद्धृत करने का अधिकार तो आर्यसमाज साहित्य के उपयोगकत्र्ता सभी बन्धुओं को होना ही चाहिये। इससे मूल लेखक का यश भी बढ़ता है और अधिक लोग इससे लाभान्वित भी होते हैं। दूसरी बात यह है कि यदि किसी लेखक व विद्वान द्वारा पुस्तक प्रकाशित होकर इसके प्रकाशक व पुस्तक विक्रताओं के पास उपलब्ध है, तो किसी अन्य प्रकाशक को उसका नया संस्करण नहीं छापना चाहिये। यदि पूर्व संस्करण पूरा समाप्त हो गया है तो इसके लेखक व पूर्व प्रकाशक का कर्तव्य है कि वह या तो कम मूल्य पर स्वयं प्रकाशित करे या फिर किसी प्रकाशक, जो उसे प्रकाशित करना चाहता है, बिना लोभ की भावना के प्रकाशन की सहर्ष अनुमति दें। आजकल तो यह हो रहा है कि प्रकाशक द्वारा लेखक से ही कई बार प्रकाशन के पूरे या आंशिक व्यय की अपेक्षा की जाती है। ऐसी स्थिति में अच्छे व नये साहित्य के सृजन में अनेक बाधायें खड़ी हो गई हैं जिसकी ओर आर्यसमाज में किसी का भी ध्यान नहीं है। हम यह भी समझते हैं कि जो लेखक अपनी महत्वपूर्ण कृति का स्वयं प्रकाशन करते हैं उससे आर्यसमाज को यह हानि होती है कि विद्वान लेखक का अधिक समय प्रकाशन कार्य में ही लग जाता है और समाज व देश उस विद्वान लेखक के नये साहित्य सृजन के कार्यों से वंचित रहते हैं अथवा लेखक की कार्य क्षमता प्रकाशन कार्यों में संलग्न होने पर घटने से नये साहित्य के सृजन के मार्ग में बाधायें आती है। प्रवर विद्वान लेखकों को इस प्रश्न पर भी विचार करना चाहिये। यह जीवन ईश्वर की अनमोल देन है। आयु बढ़ने और मृत्यु का समय आने पर तो सबको यहां से जाना ही है। हमारे जाने के बाद हम कितना भी पैसा छोड़ जाये वा अन्य बातों का इनता महत्व नहीं है। महत्व इस बात का है कि हम जिन विद्वानों के साहित्य से कृत्यकृत्य हुए हैं, क्या हमने भी प्रत्युपकार हेतु उतना ही साहित्य सृजन कर अपना ऋण उतारा है?
आर्य जगत में इस समय एक ही विद्वान हैं प्राध्यापक श्री राजेन्द्र जिज्ञासु। इन्हें उर्दू व उर्दू साहित्य का तलस्पर्शी ज्ञान है। इनका अपना पुस्तकालय भी उर्दू साहित्य से काफी समृद्ध है। इन्होंने उर्दू पत्र पत्रिकाओं का उपयोग कर नये ग्रन्थों के सृजन के साथ उर्दू पुस्तकों का अनुवाद करके आर्यसमाज की प्रंशसनीय सेवा की है और आर्य समाज में अपना अमर स्थान उत्पन्न किया है। अभी हमें उनसे बहुत आशायें हैं। हम चाहते हैं कि वह अपनी गतिविधियां व अन्य व्यस्ततायें कम करके उर्दू के महत्वपूर्ण ग्रन्थों की सूची प्रकाशित करें जिनका संरक्षण व अनुवाद आवश्यक व उपयोगी हो सकता है। हम यह भी अपेक्षा करते हैं कि वह प्राथमिकता के आधार पर अनुवाद का कार्य जारी रखें जिससे नई पीढ़ी को अधिकाधिक दुर्लभ व अप्राप्य साहित्य मिल सके। श्री जिज्ञासु परोपकारिणी सभा, अजमेर के भी सम्माननीय विद्वान हैं। वहां वह गुरूकुल के बड़े विद्यार्थियों में उर्दू का अध्ययन कराने की भी यदि व्यवस्था करा दें तो आने वाले समय में हमें उर्दू के अनेक विद्वान मिल सकेंगे जो उनके कार्य को आगे बढ़ायेगें जिससे आर्य समाज का उर्दू साहित्य आज की आवश्यकता के अनुरूप हिन्दी में उपलब्ध होकर साहित्यप्रेमियों को लाभ पहुंचायेगा। क्या परोपकारिणी सभा और प्रा. जिज्ञासु जी हमारे इस निवेदन पर एक दृष्टि डालने का कष्ट करेंगे? हम ईश्वर से प्रार्थना और कामना करते हैं कि श्री जिज्ञासु जी शतवर्ष व उससे अधिक समय तक स्वस्थ, अदीन व क्रियाशील जीवन प्राप्त करें। आर्यजगत के शिरोमणी विद्वान महत्वपूर्ण-उर्दू-आर्य-साहित्य के संरक्षण व अनुवाद के कार्य से सबंधित ठोस योजना बनाने में अपनी भूमिका निभायें, ऐसी हम अपेक्षा करते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लिखा है, मान्यवर! उर्दू में जो भी वैदिक साहित्य है उसका संरक्षण होना चाहिए. आर्य समाज में अभी भी ऐसे लोगों की पर्याप्त संख्या होगी, जो उर्दू और हिंदी दोनों के अच्छे जानकर हों. उर्दू से हिंदी में अनुवाद खास तौर से लिपि परिवर्तन ही होगा और कुछ कठिन फारसी शब्दों की जगह सरल हिंदी शब्द लिखने होंगे. किसी आर्य संस्था को इसका दायित्व उठाना चाहिए. इसमें आर्थिक व्यय तो कम ही होगा लेकिन समय और श्रम अधिक लगेगा.
पहले उन ग्रंथों की पहचान की जानी चाहिए, जिनका हिंदी अनुवाद अभी तक उपलब्ध नहीं है. फिर यह कार्य प्रारंभ किया जा सकता है.
नमस्ते एवं हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री विजय जी। आपका यह सुझाव कि आर्य समाज के उर्दू साहित्य का संरक्षण होना चाहिये, निःसन्देह प्रशंसनीय है। वर्तमान में आर्य समाज में उर्दू जानने वालों की पर्याप्त संख्या तो हो सकती है परन्तु उर्दू से हिन्दी अनुवाद कार्य करने की भावना व रूचि शायद उन किसी में भी नहीं है, अन्यथा वह कुछ सोचते और करते। वर्तमान में मैं तो केवल एक ही ऐसे विद्वान को जानता हूं जिनको इसका पूर्ण ज्ञान है, अनेक उर्दू ग्रन्थों के अनुवाद भी किये हैं और उनके अपने निजी साहित्य भण्डार में अधिकांश उर्दू ग्रन्थ विद्यमान हैं। वह हैं हमारे श्रद्धेय विद्वान अबोहर निवासी प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी। लगभग 300 छोटी-बड़ी पुस्तकें लिख व सम्पादित कर चुके हैं और सुना है कि गिनीज बुक में भी उनका नाम है। शायद संसार में सबसे अधिक दिवंगत लोगों की खोजपूर्ण जीवनियां उन्होंने लिखी हैं। विद्वान होने के कारण वह केवल अनुवाद कार्य पर केन्द्रित नहीं हो पाते क्योंकि उनके पास अन्य कई योग्यतायें भी हैं। वह अच्छे वक्ता, उपदेशक, प्रचारक तथा आर्यनेता भी हैं। अनेक विषयों पर ग्रन्थ रच चुके हैं व कर रहे हैं। पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से लिखते हैं। आयु भी अधिक हो गई है। अतः वह अपनी इच्छा से जिस कार्य को उपयुक्त समझते हैं, करते हैं। मेरा निजी अनुमान है कि अनुवाद का कार्य वही कर सकता है जो अन्य कार्यों से मुक्त व स्वतन्त्र हो। ऐसे विद्वान जिनके अन्दर उर्दू-हिन्दी करने की भावना हो, आर्य जगत में कोई दृष्टिगोचर नहीं होता। आर्य जगत के एक विद्वान मास्टर लक्ष्मण आर्य का उच्च कोटि का समस्त साहित्य प्रायः उर्दू में है। उन्होंने महर्षि दयानन्द जी का विस्तृत व विशाल जीवन चरित्र भी लिखा था। आर्य जगत के शिरोमणि विद्वान पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने महर्षि जीवन पर अनुसंधान कार्य किया और अनेकानेक महत्पूर्ण ग्रन्थों की रचना की। यह विद्वान कार्य की दृष्टि से ऐसे थे जिन्हें अपूर्व व न भूतो न भविष्यति कह सकते हैं। ऐसे स्मरणीय विद्वान वर्षों पूर्व लिखते रहे कि कोई विद्वान मास्टर लक्ष्मण आर्य लिखित उर्दू जीवन चरित का हिन्दी अनुवाद अथवा लिप्यान्तर ही कर दे, परन्तु उनके जीवन काल में कोई भी विद्वान इस कार्य को करने के लिए उद्यत नहीं हुआ। विगत 20 – 25 वर्षों से हमने भी अनेक विद्वानों को इसके लिए कहा। हमारे निवेदन पर स्व. स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती जी इस कार्य में उद्यत हुए थे परन्तु उन्होंने भी इस ग्रन्थ की लगभग 100 पृष्ठों की भूमिका का ही अनुवाद किया था जो बहुत पहले प्रकाशित हो चुकी थी। उसके बाद वह कार्य उनके द्वारा आगे न हो सका। कुछ समय पूर्व प्रा. राजेन्द्र जिज्ञासु जी ने इस जीवन चरित्र का अनुवाद करके उसे दो विशाल आकर के भागों में प्रकाशित किया है। जब एक कार्य में ही इतना समय लगा है तो आप अनुमान कर सकते हैं कि शेष अनुवाद का कार्य सरल होते हुए भी कितना जटिल बना हुआ है। यद्यपि मैं आर्य समाज की सभी संस्थाओं को जानता हूं परन्तु मुझे नहीं लगता कि कोई साधन सम्पन्न संस्थायें भी इस कार्य को करंेगी। यदि किसी को करना होता तो वह इस कार्य में प्रवृत्त होते/होती। जो भी कार्य हुआ है एकाधिक को छोड़ कर निजी स्तर पर विद्वानों के किया है। मुझे लगता है कि सभा संस्थाओं को भवन बनाने व बड़े-बड़े सम्मेलन कर स्वयं को प्रकाशित करने से समय ही नहीं मिल पाता। साहित्य में आर्य संस्थाओं की रूचि नहीं है। वैसे यह कार्य ईश्वर का है और आशा करनी चाहिये कि ईश्वर अवश्य इस विवाद को कभी अवश्य सुलझायेंगे। मैं समझता हूं कि सभी उर्दू ग्रन्थ व साहित्य की सूची हमारे विद्वान प्रा. जिज्ञासु जी ही बना सकते हैं। उन्होंने प्रायः सभी का अध्ययन भी किया हुआ है। वह ही इन ग्रन्थों के प्रकाशन की प्राथमिकतायें भी सूचित कर सकते हैं। आपकी प्रतिक्रिया व सुझावों के लिए हार्दिक धन्यवाद। मैं इस सम्बन्ध में सक्रिय रहूंगा और जो कुछ कर सकता हूं प्रयासरत रहूंगा। सादर।
मनमोहन जी , आप का लेख अच्छा लगा और जो आपने पुरानी उर्दू के ग्रंथों के बारे में लिखा है , पहले तो हमारी हकूमत को ही चाहिए था कि इन पुरातन ग्रंथों का हिंदी किया भारत की दुसरी भाषाओं में भी उनुवाद होना चाहिए . जब मैं छोटा सा था तो कई बजुर्ग उर्दू में ही जपजी साहिब जो सिखों की मौर्नुंग प्रेयर है को पड़ते थे . मुझे तो यह जान कर हैरानी हुई कि अभी तक इन ग्रंथों का हिंदी में उनुवाद नहीं हुआ . दूसरा जो आप ने कापी राईट की बात लिखी , उस से कई किताबें अलोप हो जाती हैं , ऐसा होना नहीं चाहिए . और एक बात और कि लेखक को उचित मुआवजा नहीं दिया जाता , उस को अपनी जेब से पैसे खर्च करके छपवानी पड़ती है लेकिन इस से लेखक दिल छोड़ जाता है . मेरे एक दोस्त थे (अब तो बहुत देर से उन से मिल्न नहीं हो सका ), वोह बस ड्राइवर हैं और पंजाबी के कवी भी हैं , उन की बहुत किताबें छप चुक्की हैं . एक दफा मैंने उन से पुछा , सग्गू भाई आप को तो किताबों से बहुत आमदन होती होगी . वोह हंस पड़ा और बोला ” एक तो मुझे इंडिया जाना पड़ता है , दुसरे हजार पाऊंड जेब से खर्च करने पड़ते हैं , जब किताब छप जाती है तो पचास या सौ किताबें पकड़ा देते हैं कि इसे बेच लो ” और वोह किताबें मैं सभी दोस्तों को मुफ्त में दे देता हूँ किओंकि हमारे लोगों में किताब खरीदने का भी कोई शौक नहीं है , इस लिए यह सिर्फ हौबी बन कर रह गई है” . यह भारत सरकार का फ़र्ज़ होना चाहिए हमारे सभी ग्रंथों को हर भाषा में उप्लाभ्दी करवाई जाए . हम से तो अँगरेज़ ही अछे हैं जो अभी भी भारत की पुरानी सभ्यता की खोज में लगे हुए हैं . इन्होंने पुराने ग्रीक ग्रंथों की खोज से सिकंदर की हर भारती मूवमेंट का जीकर किया है , यहाँ तक कि बीबीसी पर सिकंदर के भारत हमले के बारे में उस की हर मूवमेंट और जगह को दिखाया है , उन्होंने वोह जगह भी दिखाई जिस जगह से दरया को पार किया था और पोरस के साथ लड़ाई की थी . हमारी सरकार तो कुछ करती ही नहीं .
हार्दिक धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। हम अपने देश की हकूमत से ऐसी कोई उम्मीद नहीं कर सकते कि मानवता के हित के हमारे कार्यों में उनसे कोई सहयोग व सहायता होगी। उनके लिए तो यह कार्य साम्प्रदायिक कोटि में आते हैं। भारत की राजनीति में को केवल वोट का ही महत्व है। आपने प्रार्थना ग्रन्थ जपजी साहिब के हिन्दी अनुवाद की जो बात लिखी है। मैं भी अपने स्थानीय मित्रों से या गुरूद्वारे में जाकर पता करूगां कि इसका हिन्दी अनुवाद प्राप्तव्य है या नहीं? मुझे लगता है कि यह अवश्य उपलब्घ होगा क्योंकि यह सरल कार्य है। हिन्दी लिप्यान्तर तो अवश्य ही उपलब्ध होना चाहिये। मैं यह भी जानता हूं कि हमारे सिख भाई धर्म के प्रति बहुत अधिक श्रद्धावान है। अन्य हिन्दू सम्प्रदायों में उनकी जैसी श्रद्धा दृष्टिगोचर नहीं होती। उनकी श्रद्धा अनुकरणीय है। मैं उसको प्रणाम करता है। एक संस्मरण ध्यान में आ गया। एक बार हमारे एक मित्र पूरी बस भर कर दिल्ली के गुरूदारे में जा ठहरे। वहां सफाई कर्मचारियों की हड़ताल थी। सिख भाईयों ने उन्हें ठहराया ही नहीं उनका मल-मूत्र भी साफ किया था। वह मित्र श्री चन्द्र दत्त शर्मा अब इस दुनियां में नहीं है। उस घटना को सुनकर मैं दंग रह गया था। और भी अनेक उदाहरण हैं। मेरे पिता भी सर्दियों में, दिसम्बर 1978 में, एक अस्पताल में मरे थे। कोई हिन्दू ड्राइवर शव को अस्पताल से घर लाने के लिए तैयार नहीं हुआ। अन्त में मैंने एक सरदारजी टैक्सी वालों को कहा, उनके भी एक पण्डितजी ड्राइवर ने मना कर दिया। फिर उन्होंने अपने पुत्र को भेजा और पैसे भी काफी कम लिये थे। मैं उनका हमेशा ऋणी हूं। यही वास्तविक धर्म है। कापीराइट के विषय में जो आपने लिखा है वह अति महत्वपूर्ण व सराहनीय है। यही मेरी भी पीड़ा है। ज्ञान का तो निःशुल्क प्रचार व प्रसार का सबको समानाधिकार होना चाहिये, इसमें किसी प्रकार की रूकावट नहीं होनी चाहिये। आपने अपने मित्र का अच्छा उदाहरण दिया है, अनेको लेखकों के साथ शायद ऐसा भी होता है। हिन्दी के साहित्यकार मेरे एक मित्र हैं। उन्होंने अपना एक संस्मरण सुनाया था कि बड़ी मुश्किल से एक प्रकाशक उनकी एक आरम्भिक कृति के प्रकाशन के लिए सहमत हुआ। उन्होंने उसके प्रकाशन तक बहुत भाग दौड़ की। जब प्रकाशित हुई तो वह उसे देखकर हैरान हो गये। उस पर लेखक के नाम के स्थान पर किसी अन्य व्यक्ति का नाम था। शिकायत करने पर उत्तर मिला कि खैर मनाओं कि हमने तुम्हारी पुस्तक प्रकाशित कर दी। यह पुरानी बात है। अब मुझे बताया गया है कि उन ही मित्र पर किसी शोध छात्र ने पी.एच.डी. की उपाधि प्राप्त कर ली है। हम भारत सरकार से ऐसी उम्मीद नहीं कर सकते जो आप कह रहे हैं। अंग्रेज सरकार में कई अच्छाईंया हैं। बुराईयां भी हैं। किसी की भी अच्छी बात की दिल खोलकर तारीफ की जानी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने कहीं लिखा है कि यह संसार ईश्वर का है और इसका असली राजा ईश्वर ही है। यहां अन्यायकारियों का शासन अधिक दिन तक नहीं चलता। ‘कीर्ति यस्य स जीवति’, इस संस्कृति सूक्ति में कहा गया है कि जिसकी कीर्ति है वही जीवित है। सरदार भगत सिंह व अन्य क्रान्तिकारी आज भी अपने यशस्वी कार्यों से जीवित हैं। अन्य बड़े-बड़े नेताओं पर आरोप लगते रहते हैं। सादर धन्यवाद।
नमस्ते महोदय जी। मैंने नेट पर सर्च कर देखा। जपुजी साहिब नेट पर हिंदी विडिओ में उपलब्ध है। लिंक भेज रहा हूँ। हिंदी पीडीएफ और उर्दू आदि में भी है। सादर।
http://in.ask.com/youtube?q=japji+sahib+in+hindi+pdf&v=UE71NkSfmBk&qsrc=472
धन्यवाद , मनमोहन जी , मेरे पास पंजाबी में भी हैं और रोजाना कुछ पेजज़ स्पीच थेरपी के लिए पड़ता हूँ किओंकि इस में बहुत शब्द उचार्ण करने के लिए मुश्किल हैं इस लिए कुछ कुछ रोज़ पड़ता हूँ .
धन्यवाद आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी।
मनमोहन जी , मैंने आप के भेजे हुए लिंक पर कलिक किया और मेरे विचार में यह बहुत अच्छी तरह समझाया गिया है .
धन्यवाद जी।