भविष्य
भटकते हैं हम..
दिशाविहीन..
अन्तहीन…
लक्ष्य तो है मगर,
लक्ष्यहीन…
अपनी पहचान पाने की कोशिश में-
अहिंसक आन्दोलनोँ की राहोँ में,
व्यवस्था की क्रूर लाठी से –
या घोड़ों की टापोँ से…
जब भी कुचले जाते हैं…
बिखरता है
निर्दोष खून…
कच्ची पक्की सड़कों पर.,
इस दोष के साथ कि –
अराजकता स्वराज नहीं..
अधिकार नहीं.,
बिखरी
तमन्नायेँ …
अभिलाषायेँ
औरखून –
जब अपने भविष्य की ओर बहता है.,
या बहने लगता है –
तब व्यवस्था व
कानून मुस्कराते हैं कि…-
यही संविधान है
कल्याणकारी आदर्शोँ से
ओतप्रोत..
अनगिनत
मुश्किलोँ
संघर्षो के बाद..
जब सोते हैं
अपने ख़्वाबोँ में
तब ही अक्सर रातों को.,
वोटों की राजनीति जगा देती है.,
झिँझोड़ कर उठा देती है …
उठो..
वोट दो…
मानवतावादी
कल्याणकारी
सर्वजन हिताय
आदर्शोँ को छोड़ दो….
जाति
धर्म
संस्था
अपराध
अपराधी ही व्यवस्था बने ..
संस्कार
बुद्धि
ज्ञान
विवेक को त्याग दो…
सोचते हैं
–
हम कौन हैं …
क्या हैं …
क्योँ हैं …
कौन है दोषी ?..
हम या व्यवस्था .
कब तक पिसेँगेँ
नियति के चक्रव्यूह में …
अभिमन्यु की मृत्यु तो निश्चित ही है …
काश !
कोई अर्जुन होता .,.
काश !
भविष्य के गर्त में न जाने कितने,
चमकते सितारे-
डूब रहे हैं…
खो रहे हैं …
डुबेँगेँ ,..
खोते रहेंगे..
और एक दिन -अनगिनत
सवालों के साथ …
जबाब माँगते
अपने प्रश्नोँ का
भविष्य
खड़ा होगा सामने हमारे…
अपनी मूक निगाहोँ के साथ
मेरा कसूर …
क्या है…
बोलो…………!!
-सूर्यप्रकाश मिश्रा
वाह वाह ! बेहतर कविता !!