कहानी साहित्य की – कविता जन जन से दूर क्यों ….
यह कहानी है या आलेख, मैं स्वयं समझ नहीं पारहा हूँ, सुनने पढ़ने वाले व विज्ञ साहित्यकार स्वयं निश्चय करें | कविता जन से क्यों दूर हुई है? …यूं तो भौतिकवादी जीवन की भागदौड़, बाजारवाद आदि तमाम कारण हैं परन्तुयह कहानी साहित्य की है | आज साहित्य जगत में अज्ञान, भ्रम व प्रमाद व गुरुता -बोध का पर्याप्त बोलबाला है| अधिकाँश कवि, साहित्यकार, साहित्याचार्य, मठाधीश …न छंद का अर्थ समझ रहे हैं न काव्य में हिन्दी भाषा व व्याकरण आदिके समुचित ज्ञान की आवश्यकता को प्रश्रय दे रहे हैं | न वे काव्य के मूल… भावपक्ष—कथ्य, विषय व सत्य व सहज कथ्यांकन द्वारा स्पष्ट भाव-सम्प्रेषण एवं मानव-आचरण के सरोकारों की अनिवार्यता पर ही ध्यान देरहे हैं| अधिकाँशतः छंदों,ग़ज़लों, गीतों आदि के तकनीकी पक्ष की घिसी-पिटी लीक पर बिना किसी नवीन गति व प्रगति की ललक के अथवा नए नए शब्दाडम्बर युक्त क्लिष्ट कथ्यों युक्त रचनाओं में आत्म-मुग्ध हैं| फलतः तुलसी, रहीम, कबीर,जैसे युगकाव्य; भारतेंदुयुग जैसी प्रगतिशीलता : प्रसाद, महादेवी, पन्त, मैथिली शरण गुप्त जैसे सौन्दर्ययुक्त, दर्शन व सरोकार एवं निराला जैसी गति-प्रगतिशील कविता का सृजन कहाँ हो पा रहा है |
मैंने तमाम नयी-पुरानी संस्थाओं के समारोहों, गोष्ठियों भाग लिया| अंतर्जाल पर फैले तमाम काव्य व साहित्य के चिट्ठों, सामूहिक ब्लागों का सदस्य बना और देखा कि मूलतः साहित्य खांचों में बंटा हुआ है| कवि-साहित्यकार कीअपेक्षा गीतकार, गज़लकार, नवगीतकार, छंदकार, व्यंगकार, कहानीकार, दलित कथाकार, महिला कथाकार हैं| कवि का, साहित्यकार का बिखंडन हो चला है |
कोई छंद के विशाल कलेवर को समझे बिना सिर्फ छंदीय-विधा की साहित्यिक सांस्कृतिक संस्था बनाए बैठा है तो कोई सिर्फ ‘सनातनी छंद’ का ब्लॉग सजाये बैठा है, सनातन का अर्थ जाने बिना | वे प्रायः छंद का अर्थ सिर्फ तुकांतमुक्तक छंदों…सवैया, कुण्डलिया, दोहा अदि से समझते हैं| कुछ तो सिर्फ सवैया-घनाक्षरी को ही छंद समझते हैं | हर संस्था व ब्लॉग पर एक शास्त्रीजी या गुरु अवश्य होते हैं| गुरुबोध से निमज्जित उनकी रचनाओं या कथन पर प्रशंसा से अन्यटिप्पणी की अपेक्षा या आवश्यकता अनुभव नहीं की जाती |
सिर्फ छंदीय कविता वाली संस्था में एक तथाकथित महत्वपूर्ण कवि से मैंने पूछ लिया, सिर्फ छंदयुक्त कविता ही क्यों ?
वे बोले,’ अछान्दस कविता, छंदमुक्त कविता ने कविता की बहुत हानि की है |’
मैंने पूछ लिया,’ क्या कविता कभी बिना छंद के हो सकती है ?’ भई, वे मुक्त-छंद हैं, अतुकांत-छंद ..कविता में .छंद या तुकांत होगा या अतुकांत | फिर निराला द्वारा चलाये गए अतुकांत छंद-कविता को क्यों इतना प्रश्रय मिला किविश्व भर में मान्य है |’
‘नहीं मिलना चाहिए था|’ उनका उत्तर था |
‘यह तो समय ही निश्चित करता है, आप चार लोग थोड़े ही |’ मैंने कहा | अब वे मुझे अपने समारोह अदि में आमंत्रित नहीं करते|
सनातनी छंद ब्लॉग वालों से मैंने पूछा, ‘पांडेजी ! ये सनातनी छंद का क्या अर्थ है?
‘जो दंडी, भामह आदि आचार्यों द्वारा स्थापित पिंगल- निश्चित छंदानुशासन के अनुसार हों,’ पांडेजी बोले | ‘घनाक्षरी, सवैया, कुण्डलिया जेसे शास्त्रीय छंद |’
‘दंडी, भामह अदि ने स्वयं कितनी काव्य-रचनाएँ की हैं? मैंने कहा |…और फिर आचार्यों ने तो छंद की एक कोटि मुक्तछंद को भी माना है|’ वे नाराज होगये, बोले, यह कुतर्क है आचार्यों का अपमान |
‘क्या ये छंद ऋग्वेद में वर्णित हैं? मैंने पुनः एक अन्य कविवर से प्रश्न किया जो ज्योतिषाचार्य भी हैं..’ हमारी सनातन संस्कृति तो वेदों से है| वेदों में तो सारे मन्त्र व ऋचाएं अतुकांत हैं| अतः अतुकांत छंद व कविता वास्तव में सनातनीहुई, तुकांत छंद तो बाद में आये |
मैंने अपने नवीन स्वनिर्मित छः पंक्तियों वाले ‘श्याम सवैया छंद’ का रसपान कराया तो वे उसमें गण ढूँढने लगे काव्य के मूल तत्व ..गेयता, लय ,यति, गति हैं या नहीं पूछने पर उत्तर नदारद, बोले, पिंगल के बिना छंद को हम छंदनहीं मानते | कहने लगे आजकल हर एरा-गैरा बिना छंद नियम जाने कविता छांट रहा है |
उचित ही है, मैंने कहा, ‘पर न मानने का अर्थ न होना थोड़े ही है वह भी कौन निश्चय करेगा कि क्या सही है, सिर्फ आप ही तो नहीं |’
वाजपेयी जी कहने लगे, ’वेद ही अंतिम सत्य है | उसके विरुद्ध न चलना अपराध है |’
मैंने उन्हें याद दिलाया कि फिर तो वेदों की अतुकांत परम्परा के विरुद्ध चलकर तुकांत-छंदों के सृजनकर्ता आचार्यों ने अपराध किया है | फिर हंसते हुये कहा कि, ये कुण्डली छंद तो दोहा-रोला का मिश्र छंद है निश्चय ही उनके बाद मेंसृजित हुआ होगा किसी कवि के द्वारा | सनातनी तो हो ही नहीं सकता | भैया ! पुरातननता, सनातनता निश्चय ही माननीय हैं क्योंकि वे पदचिन्ह हैं, अनुभव हैं पुरखों के परन्तु काव्य व साहित्य भी गतिशील हैं समाज की भांति, यदि आपपुरा छंदों में ही रत रहेंगे, उसी घिसी-पिटी लीक पर और नए छंद नए नियम सृजित नहीं होंगे तो नए पदचिन्ह कैसे बनेंगे प्रगतिपथ की ओर |’ निरुत्तरता की स्थिति में वे भड़क गए| मैंने अपने फेसबुक से वह ब्लॉग ही हटा दिया | जहां मतिही नहीं वहां तुलसी बाबा की ‘कु’ या ‘सु‘ मति की बात ही नहीं उठती |
ग़ज़ल वाले एक अन्य सामूहिक ब्लोग का भी मैं सदस्य बना | कुछ छुटभैये इधर-उधर से नक़ल किये हुए ग़ज़ल के नीति-नियम के आलेख लिख रहे थे और वही बहर, वज्न, तक्तीअ, लफ्ज़ को गिराने उठाने आदि में लिपटे पड़े थे |मुझे वहां से भी भागना पडा |
मुझे याद आता है कि छंदों वाले एक अच्छे ब्लॉग पर एक सुन्दर कविता प्रकाशित की गयी , प्रशंसाएं भी हुईं | ब्लॉग संचालक व सारे सदस्य उसमें छंद ढूँढने लगे, नहीं मिला …तो मैंने कहा …
किसी भी छंद में फिट बैठता नहीं है |
ख़ास छंद की खासियत यही है |
प्रश्न पूछने, तर्क करने, आलोचना, नवीनता की बात, सत्य तथ्य व कथ्यों की बात एवं प्रगतिशीलता का आग्रह आदि के कारण अब तक जाने कितने ब्लोगों आदि की सदस्यता को मैंने छोड़ा है, भागा हूँ, हटाया व निकला गया हूँ| कुछ साहित्यिकार-ठेकेदार मुझे भटका हुआ कहते हैं | तमाम संस्थाएं मुझे अपने समारोहों के आमंत्रण पत्र भेजने में कतराती हैं|समाचार पत्र मुझे छापते ही नहीं उन्हें रेटिंग चाहिए चटपटे रचनाओं खबरों द्वारा, कड़ी प्रतिक्रया नहीं | अंततः मैंनेअपने स्वयं के चिट्ठों व साहित्य सृजन में व्यस्त रहने का फैसला लिया है|
आज वास्तव में साहित्य की दशा यह है कि अधिकाँश कवि व साहित्यकार या तो विशेष खांचों में बंटी विधाओं में लिख रहे हैं या उल-जुलूल निरर्थक छंद –सवैये आदि या क्लिष्ट शब्दाम्बर पूर्ण काव्य रचना कर रहे हैं जिसे अपनेअपने ग्रुप से अन्यथा कोई जन सामान्य न पढ़ता है न समझता है | फलतः जनता व समाज हास्य-व्यंग्य के चुटुकुलों, नेताओं पर व्यंग्य जैसी कविताओं में ही आनंद खोजने में व्यस्त हैं और वास्तविक कविता रो रही है |
यद्यपि एसा नहीं है कि अच्छे ज्ञानी, विद्वान्, साहित्यकार, ब्लॉग, संस्थाएं हैं ही नहीं | तमाम संस्थाएं, ब्लॉग, साहित्यकार ऐसे भी हैं जो सभी प्रकार की रचनाओं को, हर विधा..तुकांत –अतुकांत, गीत, ग़ज़ल, छंद सभी को प्रश्रय वबढ़ावा दे रहे हैं | नवीन विधाओं व प्रयोगों को अस्तित्व में ला रहे हैं | उन्हें किसी से भी विरोध, लगाव या परहेज़ नहीं है और साहित्य के हितार्थ अपने कर्म में लगे हुए हैं|
साहित्य जन जन तक कैसे पहुंचे व जन सामान्य साहित्य तक कैसे पहुंचे | आदर्श व सत्साहित्य का निर्माण व प्रसार कैसे हो एवं साहित्य समाज का आदर्श कैसे बने? ये सब यक्ष प्रश्न तो हैं ही |
लेख कुछ अधिक ही शोधपूर्ण हो गया है.